वो ख़्वाबों के दिन
( पिछली सदी का 80 का दशक अपनी अनूठी प्रेम कहानियों के लिए मशहूर था . एक तरफा प्रेम, विरह , जुदाई , दिल का दर्द , दर्द भरी शायरी, दोस्तों की सांत्वना , पालकों की सख्ती, समाज की बेरुखी एक आम बात थी . इन सबके होते हुए धड़कते दिल को कोई नहीं रोक पाता था . की इन्हीं भावनाओं के ताने बाने के साथ मेरी यह धारावाहिक कहानी प्रस्तुत है )
एक प्रेम कहानी अधूरी सी ….(भाग– 1)
वो सचमुच बेहद खूबसूरत लग रही थी. अल्हड सी ,अलसाई हुई , एक बंगले की पहली मंज़िल की खिड़की पर सुबह सुबह अंगड़ाई लेते हुए . इंदौर जीएसआईटीएस इंजीनियरिंग कॉलेज के न्यू हॉस्टल के पीछे वल्लभ नगर से होते हुए , मालवा मिल चौक के पास के होटल के लिए,अल सुबह मैं बिना नहाए , नाश्ता पानी के लिए निकला था .कॉलेज सुबह 6.50 को था. उस दिन मुझे भूख ज़ोरों से लगी थी और मुझे लगा कि उस वक्त कोने की गुमटी में मिलने वाली केवल चाय–मिक्चर से काम नहीं चलेगा . मैं मंत्रमुग्ध सा उसे देखता रह गया . मेरी भूख मानो गायब हो गयी , यह मुझे होटल पहुंच कर पता लगा. लौटते वक़्त मेरी नज़र उस खिड़की , उस घर को भेदती रही परन्तु कोई हलचल नहीं दिखी . मैं अपने अंदर खुशफहमी पालना चाहता था –
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
देखा जो मुझको छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ
एक अजीब सी खुमारी छाई रही उस दिन मुझपर . अगली सुबह जल्दी से नहा–धोकर अच्छे से तैयार होकर, बेचैन होकर , उस जगह पर छुपकर खड़ा हो गया जहां से उस खिड़की पर नज़र रख लूं . वो गुलाबी नाइट सूट में खिड़की से पर्दा हटाते दिखी . मेरा दिल धक से रह गया, फिर उसके चेहरे की खूबसूरत मुस्कराहट देखकर . सुप्रभात, सुप्रभात मेरे प्रियतम , मैं खुद ही खुद बुदबुदा उठा . फिर यह मेरा रूटीन हो गया . रोज़ कभी उसकी झलक पाकर उत्साहित तो कभी खिड़की पर नज़र गड़ाए हुए निराश आंखें दुखाकर लौटना . दिन में भी अब जब मौका मिलता उस घर की तरफ चल पड़ता पर सफलता नहीं मिलती. अपने दोस्तों को इस बात की भनक नहीं लगने देना चाहता था इसलिए अतिरिक्त सावधानी बरतता था . कुछ दिनों बाद मैं यह चाहने लगा था कि वह भी एक नज़र मुझपर डाले . मैं बिंदास ऐसी जगह पर खड़े होकर उस खिड़की पर नज़र रखता जहां से उसे भी मैं नज़र आ सकूं .
मैं खड़ा तेरे दर पर ,सजदे करता मेरे खुदा
तू देख ले एक बार बस ,कबूल हो जाए मेरी दुआ
फिर एक दिन आया कि उसकी नज़रें मुझपर पड़ीं . नज़रें भी मिलीं पर ना जाने मैं क्यों घबरा गया ? फिर तीन चार दिन सुबह से तैयार हो जाता पर उस घर की तरफ ना जा पाता था . खुद से कहता वो इतनी खूबसूरत है तो क्या, मुझपर ध्यान देगी ? फिर एक दिन सोचा , उसकी बातें वो जाने पर अपनी बात तो जानता हूं मैं . उसकी एक झलक मेरे जीवन में उत्साह ला देती है .
इश्क ऐसा असर न बन जाए , कि दिल जल के धुँआ न हो जाए..
वो अनजान बैठे हैं खिड़की पे, ये जान रूठ के फ़ना न हो जाए..
(अगले रविवार अगली कड़ी )
मधुर चितलांग्या, संपादक , दैनिक पूरब टाइम्स