वो ख्वाबों के दिन
( पिछले 14 अंकों में आपने पढ़ा : उस बंगले की पहली मंज़िल की खिड़की पर अचानक दीदार देने वाली उस नाज़ुक व बेहद खूबसूरत युवती के पीछे महीनों मेहनत करने के बाद , इशारों इशारों में उसके जवाब और आगे मस्ती से भरी फोन पर शुरू हो चुकी बातचीत ने एक खूबसूरत आकार लेना शुरू कर दिया . आगे पढें , प्यार की पहली मुलाकात पर शर्त के कारण मिले, दिल को सुकून और दर्द को उकेरते हुए , पहले प्रेम पत्र में दिल के जज़्बात )
एक प्रेम कहानी अधूरी सी ….
(पिछले रविवार से आगे की दास्तान – 15 )
फिर एक दिन मैंने भी अपनी जगह बदल कर दूसरी जगह छिपकर तुम्हें देखा. मैने पाया कि हर थोड़ी देर में तुम मेरी ओरिजिनल जगह पर देखकर मुझे खोजने की कोशिश कर रही हो . मैं फट से बाहर निकल आया और हिम्मत कर इशारे ही इशारे में तुम्हें सलाम ठोक दिया . मुझे देखकर , तुम भाग खड़ी हुई और पर्दे के पीछे से छिपकर मुझे देखने लगी .
मैं यह समझ गया कि मेरे अंदर की आग ने तुम्हारे अंदर भी एक चिंगारी तो लगा ही दी है . एक तरफ प्यार के लिये तैयार मेरा दिल , तुम्हारी इस छोटी से हरकत से बल्लियों उछलने लगा . मैं बरबस, खुद से, जगजीत सिंह की गज़ल का एक हिस्सा बोल उठा .
तुम्हारे और हमारे प्यार में , बस फर्क़ है इतना
इधर तो जल्दी जल्दी है , उधर आहिस्ता आहिस्ता
उस समय , मैं घायल हिरण की तरह , गहरी सासें लेता , हांफता हुआ दर्दे दिल लिए होस्टल को लौट आया. मेरा रोम – रोम रोमांचित हो गय था . इसके आगे की दास्तान , अभी भी मेरी निगाहों में बसी हुई है .
हाल–ए–दिल तुमसे कहने मैं लिखते चला जाता हूं
पर देखते रा दीवानापन मैं सोच में पड़ जाता हूं
अब आहें भरने लगा है मेरा दिल ये बेकरार
बस , तुमसे ही ज़िंदगी में है ऐ सनम ये बहार
मैं देखूं न जब तल कतुम को , चैन नहीं पाता हूं
दिन और रात बस तेरे ही , गीत गुनगुनाता हूं
उसके बाद मेरे दीवानेपन की इंतेहा हो गई . तुम्हारी खिड़की मेरे लिये मंदिर , मस्जिद , गुरुद्वारा बन गया . जहां मैं दिन में कई बार शीश झुकाने चले जाता था पर देवी दर्शन सिर्फ सुबह ही हो पाता था .
उस दिन का होस्टल लौटना और तुम्हारे बारे में सोचना , अभी तक ज़ारी है . अब लगने लगा है सचमुच मैं खतरों का खिलाड़ी हूं . पर आज इस पत्र में इतना ही क्योंकि उधर का हाले दिल सुनने के लिये मैं बेकरार हो रहा हूं .
तुम पास होकर भी पास नहीं
तुम धड़कन होकर भी सांस नहीं
मैं कैसे जी लूंगा ये जीवन
जिसमें तेरा एहसास नहीं
प्रेम में अटल तुम्हारा ‘ ध्रुव’
प्यार के इस पहले फरमाइशी खत को लिखकर मुझे बहुत सुकून आया . वैसे मुझे कोई डर भी नहीं था किसी प्रकार के रिजेक्शन का और मजबूरी भी नहीं थी, इस पत्र में अपने आप को ज़रूरत से ज़्यादा बेहतर दिखाने की . अब मैं यह सोचने लगा कि किस तरह , इस खत को उस तक पहुंचाया जाये ताकि रोमांच बना रहे . क्या फिल्मी स्टाइल में पत्थर में बांधकर , खिड़की के भीतर फेंक दूं ? पर सोचा कि दूसरी मंज़िल में यदि वह पत्थर निशाने पर नहीं बैठा तो पूरी मेहनत बेकार जायेगी . वैसे नाम सही ना होने की वजह से पकड़ाने पर ना बदनामी और ना ही पिटने का डर था इसलिये मैं हर तरह की रिस्क लेने तैयार था . बहुत उत्साहित हो रहा था मैं क्योंकि मेरी इस प्यार की पहली पाती का जवाब भी मुझे मिलने वाला था .
( अगले हफ्ते आगे का किस्सा )
इंजी. मधुरचितलांग्या , संपादक ,
दैनिक पूरब टाइम्स