लगभग 40 साल पहले जब मैं इंदौर के एसजीएसआईटीएस इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था तो मुझे भी थोड़ा जागरूक नागरिक बनने का चस्का लग गया था . कॉलेज के पास स्टारलिट टाकीज़ में लगी एक अंग्रेज़ी फिल्म के पोस्टर पर लिखा था ‘ जनता की विशेष मांग पर ‘ और फिल्म का नाम था ‘ खतरनाक जासूस और चुलबुली हसीना ‘ . मैं थियेटर के मैनेजर के पास पहुंचा और बोला , बताइये , जनता की तरफ से मांग कहाँ उठी थी ? वे कुछ बोलते , इसके पहले मैंने तल्खी दिखाते हुए कहा , देखिये , मैं भी जनता हूँ . इसलिए आगे से जनता के नाम का गलत इस्तेमाल बंद कर दीजिये . वे जानते थे कि मैं दबंग छात्र-नेता हूँ . उन्होंने कहा, ठीक है . कुछ दिनों तक उनके पोस्टर पर कुछ नहीं लिखा दिखा . परन्तु एक दिन मैंने देखा फिर उस टाकीज़ के पोस्टर पर लिखा था , ‘ जोशीले मर्दों की भारी डिमांड पर ‘ फिल्म का नाम था ‘ मासूम जवानी की कमीनी रातें ‘ . उस रात मैंने मैनेजर से फिर तलब की तो वह बोला , सर , आप थोड़ी देर शो-टाइम तक रुक जाइए . मैंने देखा, उस शो में मेरे कुछ सीनियर , मेरे कुछ बैचमेट भी आएं हैं , उन्होंने मैनेजर से सीटें रखने की खबर भेजी हुई थी . मैनेजर ने विनम्रतापूर्वक व्यंग्यबाण छोड़ा , सर , इस देश में बहुत से लोग, बहुत कुछ अवैध और अनैतिक मांगना चाहते हैं परन्तु वे मांग नहीं पाते . हम जैसे कुछ लोग उस भीड़ की मांग को सामने ले आते हैं और वे बढ़ चढ़कर उसका आनंद ले लेते हैं . मैं निरुत्तर था .
आज मुझे वह अद्भुत घटना याद आ गई क्योंकि मेरे पास मेरे एक मित्र अपने परिचित के साथ किसी काम से आये थे . उन परिचित ने हाउसिंग बोर्ड से मकान बुक किया था . जिसके निर्माण में कई कमियों के किस्से अक्सर पेपर में छपते रहते थे . मैंने उनसे कहा कि आपको बहुत नुकसान हुआ होगा . वे बोले , इसका उलटा है . हमारे एसोसिएशन के नेता अनाप शनाप मांगें करते हैं , हाउसिंग बोर्ड उनमे से अनेक मान लेता है और उस एक्स्ट्रा लाभ को हम एन्जॉय करते हैं . हम कैसे गलत मांगें करें, हमें समझ नहीं आता है? उसी तरह की मांगे, वे सामने लाते हैं , हम उनके साथ खड़े होकर , बढ़ चढ़कर उसका आनंद लेते हैं.
लगभग ऐसी ही अवैधानिक मांग करने का प्रचलन हम अखबार वालों के समर्थन के कारण बढ़ रहा है . अनेक बार किसी उद्योग या व्यवसयिक संस्था में किसी व्यक्ति की नैसर्गिक मौत होने पर भी , उस जगह के कुछ छुटभैया नेता पीड़ित परिवार की मदद के लिये अनुचित मांग को लेकर सामने आते हैं . वे घरवालों को लाश लेकर धरने पर बैठने उकसाते हैं और दबाव बनाकर , पुलिस प्रशासन को भी बैकफुट में लाकर , संस्था से अच्छी-खासी रकम लेकर ही मानते हैं . मैं खुद मानता हूँ कि जान की कीमत अनमोल है परन्तु आजकल अनेक मामलों में निर्दोष को दोषी ठहराकर वसूली करना कितना सही है ? अनेक लोग इन बातों को अच्छी तरह से समझते हैं परन्तु कोई सामने नहीं आना चाहता है क्योंकि ‘ यह भीड़ की विशेष मांग पर होता है ‘ .
इंजी. मधुर चितलांग्या , संपादक
दैनिक पूरब टाइम्स