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Thursday, November 21, 2024

वो ख़्वाबों के दिन (भाग – 13)

वो ख्वाबों के दिन

( पिछले 12 अंकों में आपने पढ़ा : मन में अनेक अरमान लिए एक गांव से शहर पढ़ने आये

एक युवा के दिल की धड़कन बढ़ा देती है , एक दिन अचानक , एक बंगले की पहली मंज़िल की खिड़की . वह देखता है वहां पर एक नाज़ुक व बेहद खूबसूरत युवती जोकि उसकी कल्पना से भी ज़्यादा सुंदर होती है . फिर एक दिन उसे महसूस होता है कि उस खिड़की के सैंकड़ों चक्कर बिलकुल बेअसर नहीं हैं . उस युवती के इशारों इशारों में जवाब और आगे मस्ती से भरी फोन पर शुरू हो चुकी बातचीत ने एक खूबसूरत आकार लेना शुरू कर दिया . आगे पढें,  प्यार की पहली मुलाकात  पर शर्त के कारण मिलने वाले दिल को सुकून और दर्द के बारे में और पहले प्रेम पत्र की शुरुआत )

एक प्रेम कहानी अधूरी सी ….
(पिछले रविवार से आगे की दास्तान – 13 )

दोनो खिलखिलाकर हंस दिये . वह लगभग भागती हुई , स्विमिंग पूल के एरिये की तरफ चली गई और मैं एक युद्ध में जीते हुए योद्धा की तरह ,  मन ही मन एक झन्नाटेदार चिट्ठी लिखने के बार में सोचते हुए होस्टल की तरफ चल पड़ा .

धड़कने, कमबख्त,  धीरे होने का नाम ही नहीं ले रही थे . मेरे गाल अभी भी लाल होकर जैसे गरम हवा छोड़ रहे थे. चेहरे की मुस्कान भी थमने का नाम नहीं ले रही थी. होस्टल के पास एक दोस्त ने मेरी हालत पर एक तुक्का मार ही दिया , आज तो तुम ऐसी मस्ती में दिख रहे हो जैसे पहली बार पिया मिलन के बाद कोई अल्हड़ गोरी,  खिल कर चलती है . मैं भी हंसते हुए बोला , बहार आने की आस में निराश हुए पतझड़ के अंधे को , हर दूसरे के दामन में फूल ही फूल दिखते हैं . अब हम दोनो अपने साहित्यिक संवाद पर खिलखिलाकर हंस पड़े . वह बोला , सच में , तुम इतनी बिजली गिरा रहे हो कि मैं लड़की होती तो मर मिटती . मैं बोला , अबे , लड़का है इसलिये कम से कम बेहोश हो जा और मुझको अपने रूम में जाने दे . वो दूसरी तरफ मुंह करके हंसते हुए गाने लगा , दाल में कुछ काला है या फिर दाल ही काली है .

रूम पहुंचकर मैं धम्म से अपने बिस्तर पर कूद कर लेट गया . जानता था कि रूम पार्टनर शाम तक या दूसरे दिन सीधे कॉलेज के बाद आयेगा . सबसे पहले जगजीत सिंह की गज़ल के बारे में सोचकर मुस्कुराने लगा .

प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक़्त तो लगता है
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है

नेहरू पार्क में हुई, इस मुलाक़ात ने , मानो मेरी ज़िंदगी में एक अलग रंग भर दिया था. देर रात कल्पना के हिरण पर बैठ कर मेरा मन कुंचाले भरता रहा. सोचता रहा अपनी पहली , उस रोमांचक मुलाकात के बारे में . फिर  उस रोमांच को और बढ़ाने के लिये छिपकर प्रेम पत्र देने लेने के बारे में . लेकिन उसकी बात से स्पष्ट था कि इस आनंद में डूबना है मगर बिना किसी कमिटमेंट . वह यही चाहती थी और मेरी स्थिति भी वास्तविकता में किसी तरह के कमिटमेंट के लिये तैयार नहीं थी . सो सोचा अभी तो अधूरा प्यार कर लें , फिर आगे देखेंगे पूरा भी हो सकता है या नहीं  भी . उसकी यह स्पष्टता से बात कहने की अदा मुझे बेहद अद्भुत लगी थी . पर इस समय की यह रसभरी दोस्ती मेरे दिल की धड़कन बढ़ा रही थी . फिर मैंने उसे लिखने के लिये , शेर ओ शायरी की किताब के पन्ने पलटाने लगा .

चिठियां भी अब दिल के हालात कहेगी
मेरी कलम भी  आपके जज़्बात कहेगी

ना जाने कितने दोस्तों के प्रेम पत्रों के लिये मैंने शेर ओ शायरियां लिखीं थी. अपने “ख्वाबों की रानी” के लिये कितने सुहाने शेर सोच कर रखे थे परंतु यहां मेरे जीवन की एक हसीन हक़ीक़त “मलिका” को लिखने के लिये मुझे बोल नहीं  मिल रहे थे . फिर अचानक एक गाने को सोच कर खुद पर हंसी आ गई , ‘ भंवरे ने खिलाया फूल , फूल को ले गया राज कुंवर ‘ . सब कुछ भूल कर सोचने लगा कि जो हो रहा है वह ख्वाब तो नहीं . क्या सचमुच वह मुझमें इंटरेस्टेड है या फिर एक तरह का खिलवाड़ कर रही है . शायद अपने दोस्तों को बताने के लिये कि मुझ पर बुरी तरह से मरने वाला एक दीवाना भी है . फिर मैंने अपनी सोच पर लगाम लगाया . हां , उसने तो स्पष्ट कह ही दिया था कि हम मंज़िल तक शायद ही पहुंचेंगे परंतु सफर तो हमारा है , इसका पूरा मज़ा लेना है. इसी उधेड़ बुन में सुबह के चार बज गये . अब , बस, मुझे किसी तरह से उसे प्रेम पत्र पहुंचाना था , रिस्क लेकर . पर अभी तक लिखा भी नहीं था . मैंने ज़्यादा सोचना बंद कर , पुराने घिसे पिटे अन्दाज़ में शुरुआत कर दी , यह सोचकर कि आगे तो शब्द अपना आकार ले ही लेंगे . ‘ मेरी मलिका ‘ , फिर उसे काट दिया कि इस तरह से पहले पत्र से ही शुरुआत ठीक  नहीं है . फिर लिखा ‘ प्यारी  मलिका’ , पहले पत्र के लिये यह भी ठीक नहीं लगा . फिर मैंने सोचा अब जैसा भी हो पत्र लिख ही देता हूं  –

बहारों की मलिका ,

तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ुओं को जवां कर लूं
जोश र्मीली नज़र कह देतो कुछ गुस्ताखियां कर लूं
बहार आई है बुलबुल दर्दे दिल कहती है फूलों से
कहो तो मैं भी अपना दर्दे दिल तुम से बयां कर दूं

दिल से बस,  इतनी बात बड़ी मुश्किल से कलम पर आ पायी है कि मैं तुम्हारा दीवाना हो गया हूं. शायद तुम्हारी खूबसूरती का या  तुम्हारी मुस्कुराहट का , शायद तुम्हारी अदाओं का  या  सबसे ज़्यादा तुम्हारे नखराले अन्दाज़ का . सचमुच ‘मलिका’ नाम बना ही तुम्हारे लिये है . दिलों पर राज़ करने वाली मलिका ….. न..न.. मेरे दिल पर राज करने वाली मलिका .

( अगले हफ्ते आगे का किस्सा ) 

इंजी. मधुर चितलांग्या , संपादक ,

दैनिक पूरब टाइम्स

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