“छत्तीसगढ़ का धमतरी जिला… जहां की पावन भूमि पर इतिहास, आस्था और चमत्कारों की अनगिनत कहानियां बसती हैं। यहां के मंदिरों में देवी-देवताओं की दिव्य शक्ति का आभास होता है, जहां हर भक्त की मनोकामना पूरी होने का विश्वास है।”
मां विंध्यवासिनी मंदिर: स्वागत है आपका छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में स्थित मां विंध्यवासिनी देवी के पावन धाम में,
जहां धरती से स्वयं प्रकट हुई मां की कृपा से भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होती है।
जंगलों के बीच स्थित यह मंदिर सिर्फ एक आस्था का केंद्र नहीं, बल्कि चमत्कार और दिव्य शक्ति का साक्षात स्वरूप है।
मंदिर का पौराणिक इतिहास
मां विंध्यवासिनी देवी का उल्लेख मार्कण्डेय पुराण के देवीमाहा 11/42 श्लोक में मिलता है।
इस मंदिर के बारे में दो प्रचलित जनश्रुतियां हैं, जो माता के दिव्य प्राकट्य का प्रमाण मानी जाती हैं:
🔹 पहली कथा:
धमतरी के गोंड नरेश धुरूवा जंगल भ्रमण पर थे।
अचानक उनके घोड़े एक स्थान पर आकर रुक गए और आगे बढ़ने से इनकार कर दिया।
राजा ने वहां खुदाई करवाई, तो उन्हें एक छोटा पत्थर मिला, जिसके दोनों ओर भयंकर जंगली बिल्लियां बैठी थीं।
जब पत्थर को निकालने का प्रयास किया गया, तो वहां से जल की धारा फूट पड़ी।
राजा को रात में स्वप्न में देवी ने दर्शन दिए और आदेश दिया कि उन्हें वहां से हटाने का प्रयास न करें,
बल्कि उसी स्थान पर पूजा-अर्चना करें।
🔹 दूसरी कथा:
कहा जाता है कि कांकेर नरेश के शासनकाल में, उनके मांडलिक राजा ने इस स्थान पर देवी की प्रतिमा देखी।
स्वप्न में देवी ने राजा को दर्शन देकर यहां मंदिर स्थापित करने का आदेश दिया।
मंदिर स्थापना के बाद देवी की मूर्ति धीरे-धीरे स्वयं ऊपर उठती गई और वर्तमान स्वरूप में प्रकट हुई।
इस चमत्कारी घटना के कारण मां को स्वयंभू देवी माना जाता है।
मां विंध्यवासिनी की मूर्ति काली रंग की है, जो विंध्य पर्वत की अधिष्ठात्री देवी का स्वरूप मानी जाती है।
देवी की प्रतिमा जहां स्थापित है, वहां से जलधारा का बहना आज भी चमत्कार माना जाता है।
जब देवी की मूर्ति पूरी तरह प्रकट हुई, तो उनका मुख मंदिर द्वार के ठीक सामने न आकर थोड़ा तिरछा रह गया।
मान्यता है कि देवी ने अपने भक्तों को यह संकेत दिया कि सच्चे मन से जहां से भी उन्हें पुकारा जाए,
वह भक्तों की पुकार सुनती हैं।
यह मंदिर छत्तीसगढ़ की पांच प्रमुख शक्तिपीठों में से एक माना जाता है।
कहा जाता है कि यहां की गई सच्चे मन से की गई प्रार्थना कभी व्यर्थ नहीं जाती।
देवी के दर्शन मात्र से भक्तों के कष्ट दूर हो जाते हैं और सुख-समृद्धि प्राप्त होती है।
मान्यताएं और भक्तों की आस्था
हर साल चैत्र और क्वांर नवरात्रि में देश-विदेश से श्रद्धालु आकर ज्योत प्रज्वलित करते हैं।
मान्यता है कि जो भी भक्त यहां मनोकामना ज्योत जलाता है, उसकी हर इच्छा पूरी होती है।
अंगार मोती माता मंदिर:
“धमतरी का प्रसिद्ध अंगार मोती माता मंदिर भी आस्था का अद्भुत केंद्र है। देवी अंगार मोती को महान ऋषि अंगिरा की पुत्री माना जाता है। भक्तों का मानना है कि निःसंतान दंपति यहां माता के दर्शन करने पर संतान सुख की प्राप्ति करते हैं। यहां क्वार और चैत्र नवरात्रि में ज्योत प्रज्ज्वलित करने की परंपरा है।”
मां अंगारमोती का धाम गंगरेल बांध के एक छोर पर स्थित है,
जहां माता बिना किसी मंदिर के, खुले आकाश के नीचे विराजमान हैं।
कहा जाता है कि उनकी मूर्ति लगभग 600 वर्ष पुरानी है,
जिसकी पूजा-अर्चना का कार्य कश्यप वंश के नेताम परिवार द्वारा पीढ़ियों से किया जा रहा है।
गंगरेल बांध निर्माण और माता का पुनर्स्थापन:
वर्ष 1972 में जब गंगरेल बांध का निर्माण हो रहा था,
तब धमतरी जिले के 52 गांव जलमग्न हो गए।
इन्हीं में से एक था ग्राम चंवर, जहां मां अंगारमोती की प्राचीन प्रतिमा विराजमान थी।
बांध निर्माण के कारण जब ग्राम जलमग्न होने लगा,
तो श्रद्धालुओं ने माता की प्रतिमा को सुरक्षित निकालकर बांध के छोर पर स्थापित कर दिया।
तब से माता एक विशाल वृक्ष के नीचे खुले स्थान पर विराजित हैं और भक्तों को आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं।
किवदंती के अनुसार, जब मां अंगारमोती ग्राम चंवर में विराजमान थीं,
तब कुछ चोरों ने माता की मूर्ति चोरी कर ली,
लेकिन वे मूर्ति के चरणों को ले जाने में असमर्थ रहे।
माता की प्रतिमा तो चोरी हो गई,
लेकिन उनके पावन चरण वहीं रह गए।
बाद में, भक्तों ने उन चरणों की पुनः प्राण-प्रतिष्ठा की और
विधि-विधान से नवीन प्रतिमा का निर्माण कराया।
वही प्रतिमा आज गंगरेल बांध के तट पर भक्तों को दर्शन देती हैं।
सिहावा स्थित कर्णेश्वर धाम
जहां ऋषियों की तपोभूमि पर आज भी आस्था और भक्ति की ज्योति प्रज्वलित है।
कर्णेश्वर धाम का इतिहास 1000 वर्ष पुराना है।
कांकेर के सोमवंशी राजा कर्णराज ने शक संवत 1114 में इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
यहां भगवान शिव, राम और जानकी के भव्य मंदिर स्थापित हैं।
मान्यता है कि मंदिर में स्थित अमृतकुंड का जल कुष्ठ रोग जैसे असाध्य रोगों को ठीक करता था।
हर साल माघी पूर्णिमा पर चार दिवसीय भव्य मेला आयोजित होता है।
श्रद्धालु महानदी और बालका नदी के संगम में आस्था की डुबकी लगाते हैं।
मेले में झूले, स्टॉल और भव्य रोशनी से धाम को सजाया जाता है।
श्रद्धालु अमृतकुंड का जल अपने साथ ले जाते हैं,
जिससे घर में सुख-समृद्धि और आरोग्य बनी रहती है।
कर्णेश्वर धाम केवल एक धार्मिक स्थल नहीं,
बल्कि भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने वाला आस्था का प्रतीक है
बूढ़ेश्वर महादेव मंदिर:
“धमतरी का बूढ़ेश्वर महादेव मंदिर लगभग 1300 साल पुराना है। इसे कांकेर के राजा के राजमहल का हिस्सा माना जाता है, जो अब मंदिर के रूप में विराजमान है। सावन मास में यहां शिवमहापुराण कथा का आयोजन किया जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर का शिवलिंग पातालमुखी है, जिसका स्पर्श मात्र ही भक्तों को सभी पापों से मुक्त कर देता है।”
कोटेश्वर महादेव मंदिर:
“सिहावा के घने जंगलों में स्थित कोटेश्वर महादेव का शिवलिंग, भगवान शिव के नीलकंठेश्वर स्वरूप का प्रतीक है। कहा जाता है कि इस शिवलिंग पर दूध अर्पित करने पर वह नीले रंग का हो जाता है। मान्यता है कि रावण ने यहां कठोर तपस्या कर दिव्य अस्त्र-शस्त्र का वरदान प्राप्त किया था। आज भी भक्तों का विश्वास है कि यहां दर्शन मात्र से