विधवा पुनर्विवाह कानून (Widow Remarriage Law) भारत में विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार देने वाले कानूनों का समूह है। इस कानून का उद्देश्य समाज में विधवाओं के लिए समानता और सम्मान सुनिश्चित करना था, ताकि वे दूसरी बार शादी कर सकें और जीवन में आगे बढ़ सकें।
इस कानून का मुख्य कानून “विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856” है, जिसे ब्रिटिश शासन के दौरान सर राममोहन राय और इश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे सुधारकों की मेहनत से लागू किया गया था। इस अधिनियम ने विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी रूप से वैध माना।
विधवा पुनर्विवाह कानून का इतिहास:
- विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856:
- यह कानून भारतीय समाज में विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने लागू किया।
- इसके अंतर्गत विधवाओं को समाज में सम्मान के साथ पुनर्विवाह करने का अधिकार दिया गया।
- इससे पहले, भारतीय समाज में विधवाओं को दयनीय स्थिति में रखा जाता था, और पुनर्विवाह की परंपरा पर कड़ा प्रतिबंध था।
- भारत में विधवा पुनर्विवाह पर कानूनों का विकास:
- भारतीय संविधान में महिलाओं के अधिकारों को प्राथमिकता दी गई है, और विशेष रूप से महिलाओं को समाज में समान अधिकार देने के लिए कई कानून बनाए गए।
- विधवाओं के पुनर्विवाह को कानूनी रूप से बढ़ावा देने के लिए हिंदू विधि में भी संशोधन किए गए।
विधवा पुनर्विवाह से संबंधित अन्य प्रावधान:
- हिंदू विवाह अधिनियम, 1955: इस कानून ने विवाह से संबंधित कई प्रावधानों को स्पष्ट किया और विधवाओं के पुनर्विवाह को पूरी तरह से कानूनी बना दिया।
- शरीयत कानून (Muslim Personal Law) के तहत मुस्लिम समुदाय में भी विधवाओं के पुनर्विवाह की परंपरा रही है, लेकिन इस पर भी समाजिक और कानूनी चर्चा होती रही है।
आज के समय में विधवा पुनर्विवाह:
वर्तमान में, भारत में विधवाओं के पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया जा रहा है, और इसे कानूनी रूप से स्वीकार किया गया है। हालांकि, कई स्थानों पर समाज में यह मानसिकता अब भी बन सकती है कि विधवा का पुनर्विवाह एक विवादित या अलोकप्रिय मुद्दा हो सकता है।
कुल मिलाकर, विधवा पुनर्विवाह कानून ने भारतीय समाज में एक बड़ा बदलाव लाया और विधवाओं को जीवन में नई शुरुआत करने का अवसर प्रदान किया।