यह सुबह का समय था। गर्मी बहुत थी, दिन अभी ही शुरू हुआ था। चीको किरियाके ने माथे से पसीना पोंछा और छांव की तलाश करने लगी। तभी अंधा करने वाली रोशनी दिखी।
उसने पहले कभी ऐसा मंज़र नहीं देखा था।
छह अगस्त 1945 का दिन था और आठ बजकर पंद्रह मिनट था।
याद करते हुए उन्होंने कहा, “ऐसा लगा जैसे सूर्य नीचे गिर गया और मुझे चक्कर आने लगा।””
दरअसल, चीको के शहर हिरोशिमा पर अमेरिका ने परमाणु बम गिराया था। परमाणु हथियार पहली बार किसी युद्ध में इस्तेमाल किए गए।जबकि जर्मनी ने यूरोप छोड़ दिया, दूसरे विश्व युद्ध में अमेरिका और उसके सहयोगी सेनाएं जापान के साथ युद्ध में थीं।सावधानी: इस लेख में कुछ बातें हैं जो पाठकों को परेशान कर सकती हैं।
चीको एक छात्र थीं. उन्हें बड़े विद्यार्थियों की तरह युद्ध के दौरान कारखानों में काम करने के लिए भेजा गया था.
वह एक घायल दोस्त को पीठ पर लादकर लड़खड़ाते हुए अपने स्कूल पहुंचीं. हमले के बाद कई छात्र बुरी तरह झुलस गए थे. उन्होंने अर्थशास्त्र की कक्षा में रखे हुए पुराने तेल को उनके घावों पर लगाया.
चीको कहती हैं, “यही एकमात्र उपचार था जो हम उन्हें दे सकते थे, वे सभी एक के बाद एक मरते गए. हमले में बचे हुए मेरे जैसे बड़े छात्रों को हमारे शिक्षकों ने खेल के मैदान में एक गड्ढा खोदने का निर्देश दिया और मैंने अपने हाथों से अपने सहपाठियों का अंतिम संस्कार किया.”
चीको अभी 94 साल की हैं. हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए हुए क़रीब 80 साल हो गए हैं और बचे हुए पीड़ितों को जापान में हिबाकुशा के नाम से जाना जाता है. हिबाकुशा के पास अपनी कहानियां साझा करने के लिए अब ज़्यादा वक्त नहीं बचा है.
हमलों में बचे लोगों ने बीमारियों के साथ ज़िदगी गुज़ारी है. कई लोगों ने हमले में अपने परिजनों को खो दिया. कुछ को भेदभाव का शिकार होना पड़ा.
अब ये लोग बीबीसी टू की फिल्म के लिए अपने अनुभव साझा कर रहे हैं.