हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का जीवंत उदाहरण बन चुकी सूफी संत गरीब नवाज ख्वाजा
मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह सभी धर्मों के लिए पवित्र स्थल है। विशेषकर ईस्लाम धर्म
के अनुयायियों के लिए मक्का के बाद मुस्लिम तीर्थ स्थलों में ख्वाजा साहब या ख्वाजा
शरीफ अजमेर का दूसरा स्थान हैं। इसलिये यह भारत का मक्का कहलाता है।
हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह (1141-1230) सूफ़ी संत थे। उन्होंने
12वीं शताब्दी में अजमेर में चिश्ती परंपरा की स्थापना की। ख्वाजा मोईनुद्दीन
चिश्ती का जन्म ईरान में हुआ था। बचपन से ही उनका मन सांसारिक चीजों से विरक्त था।
वे मानव-प्रेम व मानव सेवा को ही अपने जीवन का उद्देश्य मानते थे। 50 वर्ष की आयु
में ख्वाजा जी ने भारत का रुख किया और बाकी उम्र अजमेर में गुजारी। वे हमेशा से
ईश्वर से दुआ करते कि वह उनके सभी भक्तों का दुख-दर्द उन्हें दे दे तथा उनके जीवन
को खुशियों से भर दे। एक बार बादशाह अकबर ने दरगाह शरीफ में दुआ मांगी कि उन्हें
पुत्र-रत्न प्राप्त होगा तो वे पैदल चलकर जियारत पेश करने आएंगे। सलीम को पुत्र के
रूप में प्राप्त करने के बाद अकबर ने आमेर से अजमेर शरीफ तक की यात्रा नंगे पैर
चलकर की।
तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह शरीफ वास्तुकला
की दृष्टि से भी अभूतपूर्व है। यहाँ ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुंदर संगम
दिखता है। दरगाह का निर्माण हुमायूँ के शासनकाल में हुआ था। दरगाह का प्रवेश द्वार
और गुंबद बेहद खूबसूरत है। प्रवेशद्वार के निकट मस्जिद का निर्माण अकबर के शासनकाल
में हुआ था तथा मजार के ऊपर की आकर्षक गुंबद शाहजहां के शासनकाल में निर्मित की गई।
माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी
ने करवाया था। दरगाह के अंदर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चाँदी का कटघरा है। इस
कटघरे के अंदर ख्वाजा साहब की मज़ार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने
बनवाया था। दरगाह में एक सुंदर महफिलखाना तथा कई दरवाजे हैं, जहाँ कव्वाल ख्वाजा की
शान में कव्वाली गाते हैं। दरगाह के आस-पास कई अन्य ऐतिहासिक इमारतें भी स्थित हैं।
दरगाह के आंगन में दो विशालकाय देग रखी हैं, जो अकबर और जहांगीर द्वारा भेंट की गई
थीं। इनमें एक साथ कई मन चावल पकाया जाता है, जो गरीबों में बांटा जाता है।
प्रतिदिन हर धर्म-संप्रदाय के सैकड़ों लोग दरगाह में मन्नत मांगने आते हैं और मुराद
पूरी होने पर अपनी हैसियत के अनुसार चादर चढ़ाते हैं। यहां मन्नत मांगने के साथ
पवित्र धागा बांधने का तो रिवाज है, परंतु मुराद पूरी होने पर खोलने का नहीं। यहां
प्रतिवर्ष उर्स का आयोजन किया जाता है, जिसमें देश-विदेश से हजारों जायरीन जियारत
पेश करने आते हैं। यह उर्स इस्लामी कैलेंडर के अनुसार रजब माह में पहली से छठी
तारीख तक मनाया जाता है। छठी तारीख को ख्वाजा साहब की पुण्यतिथि मनाई जाती है। उर्स
के दिनों में महफिलखाने में देश भर से आए कव्वाल अपनी कव्वालियों द्वारा ख्वाजा
साहब के प्रति अपनी श्रद्धा पेश करते हैं। मान्यता है कि यदि जायरीन यहां आने से
पहले हजरत निज़ामुद्दीन औलिया, दिल्ली के दरबार में हाजरी लगाता है तो उसकी मुराद
यहां सौ फीसदी पूरी होती है। उर्स के मौके पर लाखों की संख्या में लोग चादर चढ़ाने
अजमेर आते हैं, जिनके लिए सरकार विशेष प्रबंध करती है। जायरीनों के ठहरने, नहाने,
शौच, चिकित्सा आदि के लिए युद्धस्तर पर कई दिन पहले से ही तैयारियां शुरू कर दी
जाती हैं। बाजारों की सजावट इस दिन देखते ही बनती है। दरगाह और उसके आसपास फूल,
इत्र और अगरबत्ती आदि की सुगंध महक उठती है। वास्तव में दरगाह शरीफ एक ऐसी पाक जगह
है, जहां मनुष्य को खुद को जानने और समझने की शक्ति मिलती है तथा कुछ समय के लिए वह
अपने सारे दुखों को भूल जाता है।
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