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Thursday, November 21, 2024

वो ख़्वाबों के दिन (भाग – 9)

वो ख्वाबों के दिन  भाग 9
( पिछले 8 अंकों में आपने पढ़ा : मन में अनेक अरमान लिए एक गांव से शहर पढ़ने आये एक युवा के दिल की धड़कन बढ़ा देती है , एक दिन अचानक , एक बंगले की पहली मंज़िल की खिड़की . वह देखता है वहां पर एक नाज़ुक व बेहद खूबसूरत युवती जोकि उसकी कल्पना से भी ज़्यादा सुंदर होती है . फिर एक दिन उसे महसूस होता है कि उस खिड़की के सैंकड़ों चक्कर बिलकुल बेअसर नहीं हैं . उस युवती के इशारों इशारों में जवाब और आगे मस्ती से भरी फोन पर शुरू हो चुकी बातचीत ने एक खूबसूरत आकार लेना शुरू कर दिया . अब इंतज़ार था कि कब पहली मुलाकात होगी )

एक प्रेम कहानी अधूरी सी ….

(पिछले रविवार से आगे की दास्तान – 9 )

उसने कहा , आपको बताने की कोशिश की थी . क्या आप नाराज़ हैं , मुझसे ? मैंने कहा , भला क्यों ? मलिका को तो हक़ होता है कि वह अपने बंदे को बहुत सताये . वह फिर से खिल उठी और सचमुच नखरे दिखाते हुए बोली ,’मा बदौलत चाहती हैं कि आप नेहरू पार्क के स्वीमिंग पूल के पास के बगीचे में मुझसे कल सुबह साढ़े दस बजे मिलिये ‘. मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा .

टेलीफोन बूथ से होस्टल के अपने कमरे कैसे पहुंचा पता ही नहीं चला . रास्ते में दो–तीन दोस्तों ने आवाज़ देकर मुझसे बात करने की कोशिश की पर जैसे मुझे कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा था. एक तरफ जहां मैं खुशी से पागल हो रहा था, वहीं दूसरी ओर एक अज्ञात भय से मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा . मैं कमरे में आकर अपने बिस्तर पर चद्दर ओढ़ कर लेट गया .

कैसे मान लूं ये हम दोनों की पहली मुलाकात है
रोज़ नज़रें मिलती हैं
रोज़ नज़रों से बात होती है

बाहर दोस्तों की खटर पटर की आवाज़ आ रही थी . मेरा रूम पार्टनर भी अंदर आया और मुझसे पूछने लगा कि तबियत तो ठीक है ? मैंने कहा , कल रात ठीक से नींद नहीं आई थी इसलिये अभी थोड़ी देर सो रहा हूं . वह बोला , आज मैं अपने रिश्तेदार के यहां जाने का सोच रहा था पर तुझे ठीक नहीं लग रहा है तो रुक जाऊं ? मैं अकेला रहने की चाह में , उससे लगभग अतिरिक्त मनुहार करते हुए बोला , अरे जा यार, बहुत दिनों से नहीं गया है . ये बात ठीक नहीं है . वह बोला , ठीक है मैं कल शाम –रात तक ही लौटूंगा . मैंने जान बूझ कर अपना मुंह ढंक लिया . वह कमरे का दरवाज़ा भिड़ाकर निकल गया .

शनिवार की शाम होने लगी थी , यह हमारी सबसे अधिक मज़े की रात होती थी . देर रात तक पिक्चर जाना, फिर रात भर गप मारना और रविवार देर तक सोना . मेरा रूम खोलकर दो तीन दोस्त आये , बोले जल्दी तैयार हो . टल्ले खाने चलना है . मैंने भी अपने रिश्तेदार के यहां जाने का बहाना बनाकर उन्हें टाला . उनके जाते ही मन फिर शायराना हो गया .

अब मेरे जुदाई के इस सफ़र को आसान करो 
तुम मेरे ख़्वाब में आकर मुझे परेशान करो

देर रात तक , बस लेटे हुए , कल्पना में तुम्हारी अदाएं और अपने अंदाज़ को सोचता रहा . एक फिल्म का टाइटिल सोच कर अकेले, पड़ा पड़ा,  हंस पड़ा . तुमहसीन , मैंजवान . फिर आंखों के सामने सचमुच की एक फिल्म सी चलने लगी . कैसे पहली बार तुम्हें खिड़की पर देख कर मेरा दिल ज़ोर से धड़का था . कैसे मैं बारिश में भी खिड़की पर तुम्हारी एक झलक दिखने का इंतज़ार करता था ? किस तरह से तुमने मुझे पास से अपने दर्शन दिये या फिर मुझे भी नज़र भर कर देखा ? टेलीफोन नंबर देने के लिये तुमने कितना ज़ोखिम उठाया ?  और अंत में , तुम्हारे द्वारा मुझको दिया गया नाम , “ ध्रुव “ और मेरे द्वारा तुमको दिया नाम “ मलिका “ सोचकरबावराहोकरहंसनेलगा

हर कोई चमकता सितारा , ध्रुव तारा नहीं होता
हर कोई मलिका ए हुस्न को प्यारा नहीं होता
वह अटल रहता है खास मुकाम बना अपने दम पर
हर कोई मलिका के कोमल दिल को दुलारा नहीं होता

नेहरू पार्क के स्वीमिंग पूल में रोज़ 9 बजे से लेडीज़ टाइम होता था और केवल रविवार को 10 बजे से होता था. इंजीनियरिंग कॉलेज के मेरे अनेक दोस्त और कभी–कभी मैं भी सुबह जल्दी , वहां स्वीमिंग के लिए जाते थे . लेडीज़ टाइम खत्म होने के  दस– पंद्रह मिनट तक आस–पास टल्ले खाते और देखते रहते कि कौन –कौन सी लडकियां नहाने आती हैं. अपनी आंखें सेकते  थे .  उसके द्वारा साढ़े दस का टाइम देने से मेरी जान में जान आ गयी वर्ना मैं उससे क्या कहता ?  फिर भी अन्दर से एक अज्ञात डर था कि कोई दोस्त भी वहां न पहुंच जाये और इस पहली मुलाकात को आखरी बनाने में अपने तरीक़े से मददगार ना बन जाये  . फिर अचानक अपने को डरपोक व मलिका को निर्भीक मानकर अपने लिये ही एक कविता बना दी .

यूं ही शरमाकर मिलेंगे जब हम दोनों
राज़ ए दिल खोलेंगे तब हम दोनो
कहूंगा,  तुम अपनी बात बताओना
मेरे डर को जल्दी से दूर भगाओना
प्यार करते होतो यूंही घबराओना
आओ, हमको आकर गले लगाओना
कहकर इतना तुमने मुझेबु लाहीलिया
मैंने तुमको अपने गले से लगाहीलिया.

अगले दिन रविवार था. अल सुबह मेरे कदम फिर उसकी खिड़की की तरफ बढ़ने के लिए बेचैन थे , एक रुटीन जो बन गया था. बड़ी मुश्किल से मैंने अपने रोका क्योंकि आज तो सीधे 10.30 बजे मुलाकात होनी थी , अपने मन पर राज करने वाली , मलिका से .

( अगले हफ्ते पहली मुलाक़ात का किस्सा )

इंजी. मधुर चितलांग्या , संपादक ,

दैनिक पूरब टाइम्स

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