गुलाम अली की एक गज़ल बेहद अधिक फेमस हुई थी –‘नातज़ुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें हैं ,उस रंग को क्या समझें , पूछो तो कभी पी है’ . (नातज़ुर्बाकारी – अनुभव हीनता , वाइज़ – पंडित , उपदेशक ) हांलाकि यह बात शराब के ऊपर से कही गई थी पर इसका मतलब यह होता है कि जिसने किसी चीज़ का अनुभव नहीं किया हो , वह उस बात के वास्तविक स्वरूप को कैसे समझ सकता है . ऐसा ही मेरा कहना होली के त्यौहार के बारे में .
बचपन से हमने होली के लिये राजनांदगांव में वह उत्सुकता , वह उमंग , वह तरंग , वह मदमस्ती देखी है कि अब बेहद सभ्यता व औपचारिकता भरी होली बईमानी लगती है. केवल मोबाइल से मैसेज भेजकर , फोन से बात कर या एक दूसरे को गुलाल लगाकर होली खेलने की औपचारिकता में वह बात नहीं जो रंग , पिचकारी वाली होली, पाने की टंकी में उठाकर फेंकने वाली होली , भंग की तरंग में चंग व ढोल की थाप पर बेतहाशा नाचने वाली होली होती थी . हर साल मैं अपनी याददाश्त के अनुसार किसी ना किसी घटना को लिखकर आप लोगों से रूबरू करवाता हूं पर सच्चाई यही है कि मैं खुद ,अपने अंदर को गुदगुदाता हूं , अपने को अहसास दिलाता हूं कि मेरी मस्ती खोरी ज़िंदा है . 10-12 साल का होऊंगा कि एक साल हमारे मोहल्ले के सीनियर दोस्तों (हमारी भाईबंध व उनके साथियों का युवा ग्रुप ) ने तय किया कि इस साल गंज लाईन की होली बहुत बड़ी जलायेंगे. फिर क्या था ? शुरू हो गया ,रोज़ शाम –रात को बैलगाड़ियों से खूंटा चुराने का काम. होली की जगह एक माह पहले से ही एक अरंडी के झाड़ को गड़ाकर होली जलाने की जगह तय हो जाती थी . वहां खूंटे , सूखी लकड़ियां , सूखे पत्ते , झाड़ों के ठूंठ के अलावा जिस किसीके घर के सामने या आसपास कोई लकड़ी का फर्नीचर थोड़ा भी टूटा फूटा होता , उसे ले जाकर होली वाली जगह पर डाल देते थे .
पीछे सुनार-खाती लोग एक सप्ताह पहले से ही चंग बजाकर फाग आल्हा गाते थे , उसके नाच में भी कई बार शामिल हो जाते थे. होली के तीन दिन पहले से ही पुरानी पिचकारी और फव्वारे के छर्रे चेक करना, ओवरआईलिंग करना चालू हो गया. रंग और फुग्गे के अलावा, तरह तरह के स्वांग व टोपियां भी अपने पालकों से ज़िद कर खरीद लाए थे . होली खेलने के पहले दिन से ही छत से छिपकर फुग्गे से लोगों को गीला करना चालू कर दिया था . हमारे घर के सामने के पानी के बड़े हौदे को पहली शाम ही अनेक लड़के मिलकर साफ कर चुके थे . इस दौरान एक दूसरे को पाने में डुबाकर होली की मस्ती चालू हो गई थी . रात होलिका दहन के वक़्त पूजा के साथ भांग के पेड़े व ठंडाई से मदहोश होकर सब एक दूसरे को गुलाल से सरोबार करते और देर तक नाचते रहे .
दूसरे दिन सुबह से ही मोहल्ले की मुख्य सड़क से गुज़रने वाला हर एक व्यक्ति हमारा शिकार होता था .उसे दौड़ाकर पकड़ते , उसे टंकी में डुबाते और खुद भी डूब जाते . फिर घरों में जाकर भाभियों और माओं को रंग लगाते .सबसे मज़ा होली के दिन छुपने वाली भाभी को किसी तरह से छेक कर भिगाने में आता था . कई घरों से मिठाई नाश्ते के बाद, भंग और रंग के साथ दोस्तों के साथ जुलूस में निकल कर, दूर दराज़ तक रंग खेल आते . फिर साइकिल में सवार होकर मोहारा – शिवनाथ नदी में नहाने जाते . इस वक़्त की चक्कल्लस , किसी किसी की माशूक़ की बातचीत और गाली गलौच बहुत अद्भुत होता था . उस दिन जिसने अपनी बोलचाल या मर्यादा नहीं तोड़ी हो, वह कैसे उस अलौकिक आनंद को समझ पाएगा ?
इंजी. मधुर चितलांग्या , संपादक,
दैनिक पूरब टाइम्स