महर्षि पातांजलि महान् चकित्सक थे और इन्हें ही ‘चरक संहिता’ का प्रणेता माना जाता है।
महर्षि पातांजलि का महान अवदान है ‘योगसूत्र’। पातांजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे
– अभ्रक विंदास अनेक धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। महर्षि पातांजलि संभवत:
पुष्यमित्र शुंग (195-145 ई. पू.) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ
मन का भी चिकित्सक कहा है।
महर्षि पातांजलि काशी-मण्डल के ही निवासी थे। मुनियत्र की परंपरा में वे अंतिम मुनि थे।
पाणिनी के पश्चात् पातांजलि सर्वश्रेष्ठ स्थान के अधिकारी पुरुष हैं। उन्होंने
पाणिना व्याकरण के महाभाष्य की रचना कर स्थिरता प्रदान की। महर्षि पातांजलि ने पाणिनि के
अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया। वे अलौकिक प्रतिभा के
धनी थे। व्याकरण के अतिरिक्त अन्य शास्रों पर भी इनका समान रुप से अधिकार था।
व्याकरण शास्त्र में उनकी बात को अंतिम प्रमाण समझा जाता है। उन्होंने अपने समय के
जनजीवन का पर्याप्त निरीक्षण किया था। अत:
महाभाष्य व्याकरण का ग्रंथ होने के साथ-साथ तत्कालीन समाज का विश्वकोश भी है।
महर्षि पातांजलि की एकमात्र रचना महाभाष्य (मह़ा+भाष्य(समीक्षा,टिप्पणी,विवेचना,आलोचना)
उनकी कीर्ति को अमर बनाने के लिये पर्याप्त है। दर्शन शास्त्र में शंकराचार्य को जो
स्थान ‘शारीरिक भाष्य’ के कारण प्राप्त है, वही स्थान महर्षि पातांजलि को महाभाष्य के कारण
व्याकरण शास्त्र में प्राप्त है। महर्षि पातांजलि ने इस ग्रंथ की रचना कर पाणिनी के
व्याकरण की प्रामाणिकता पर अंतिम मुहर लगा दी है। महर्षि पातांजलि योगसूत्र के रचनाकार है
जो हिन्दुओं के छ: दर्शनों (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग,मीमांसा, वेदान्त) में से
एक है। भारतीय साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए 3 मुख्य ग्रन्थ मिलते है: योगसूत्र,
अष्टाध्यायी पर भाष्य, और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। कुछ विद्वानों का मत है कि ये तीनों
ग्रन्थ एक ही व्यक्ति ने लिखे , अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की
कृतियाँ हैं।
जीवन – महर्षि पतंजलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। इनका जन्म
गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था पर ये काशी में नागकूप पर बस गये थे। ये
व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे। काशीवासी आज भी श्रावण कृश्ण 5, नागपंचमी को
छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग लो कहकर नाग के चित्र बाँटते हैं क्योंकि
पातांजलिको शेषनाग का अवतार माना जाता है।
द्रविड़ देश के सुकवि रामचन्द्र दीक्षित ने अपने ‘पातांजलि चरित’ नामक काव्य ग्रंथ
में उनके चरित्र के संबंध में कुछ नये तथ्यों की संभावनाओं को व्यक्त किया है। उनके
अनुसार आदि शंकराचार्य के दादागुरु आचार्य गौड़पाद पातांजलि के शिष्य थे किंतु
तथ्यों से यह बात पुष्ट नहीं होती है। प्राचीन विद्यारण्य स्वामी ने अपने ग्रंथ
‘शंकर दिग्विजय’ में आदि शंकराचार्य में गुरु गोविंद पादाचार्य को पातांजलि का
रुपांतर माना है। इस प्रकार उनका संबंध अद्वैत वेदांत के साथ जुड़ गया।
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शारीरस्य च वैद्यकेन ।
योऽपाकरोत्त प्रवरं मुनीनां पर जलिं प्रा जलिरानतोऽस्मि ।।
(अर्थात् चित्त-शुद्धि के लिए योग (योगसूत्र); वाणी-शुद्धि के लिए व्याकरण
(महाभाष्य) और शरीर-शुद्धि के लिए वैद्यकशास्त्र (चरकसंहिता) देनेवाले मुनिश्रेष्ठ
पातांजलि को प्रणाम ! )