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Thursday, January 16, 2025

महान संत एवं विचारक , रामकृष्ण परमहंस ठाकुर

रामकृष्ण परमहंस वे भारत के एक महान संत एवं विचारक थे। उन्होंने सभी धर्मों कीएकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं अत: ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न भिन्न साधन मात्र हैं। मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फरवरी, 1836 को बंगाल प्रांत स्थित ग्राम कामारपुकुर में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। इनकी बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। सत्रह वर्ष की अवस्था में बड़े भाई रामकुमार के बुलाने पर गदाधर कलकत्ता आये और कुछ दिनों बाद भाई के स्थान पर रानी रासमणि के दक्षिणेश्वरमन्दिर में पूजा के लिये नियुक्त हुए। यहीं उन्होंने माँ महाकाली के चरणों में अपने को उत्सर्ग कर दिया। वे भाव में इतने तन्मय रहने लगे कि लोग उन्हें पागल समझते। वे घंटों ध्यान करते और माँ के दर्शनों के लिये तड़पते। एक दिन अर्धरात्रि को जब व्याकुलता सीमा पर पहुँची, तब जगदम्बा ने प्रत्यक्ष होकर कृतार्थ कर दिया। गदाधर अब परमहंस रामकृष्ण ठाकुर हो गये।

एक दिन सन्ध्या को सहसा एक वृद्धा संन्यासिनी स्वयं दक्षिणेश्वर पधारीं। परमहंस रामकृष्ण को पुत्र की भाँति उनका स्नेह प्राप्त हुआ और उन्होंने परमहंस जी से अनेक तान्त्रिक साधनाएँ करायीं। उनके अतिरिक्त तोतापुरी नामक एक वेदान्ती महात्मा का भी परमहंस जी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उनसे परमहंस जी ने अद्वैतज्ञान का सूत्र प्राप्त करके उसे अपनी साधना से अपरोक्ष किया। परमहंस जी का जीवन विभिन्न साधनाओं तथा सिद्धियों के चमत्कारों से पूर्ण है; किंतु चमत्कार महापुरुष की महत्ता नहीं बढ़ाते। परमहंस जी की महत्ता उनके त्याग, वैराग्य, पराभक्ति और उस अमृतोपदेश में है, जिससे सहस्त्रों प्राणी तार्थ हुए, जिसके प्रभाव से ब्रह्मसमाज के अध्यक्ष केशवचन्द्र सेन जैसे विद्वान भी प्रभावित थे , जिस प्रभाव एवं आध्यात्मिक शक्ति ने नरेन्द्र जैसे नास्तिक, तर्कशील युवक को परम आस्तिक, भारत के गौरव का प्रसारक स्वामी विवेकानन्द बना दिया।

उनकी उपदेश शैली बड़ी सरल और भावग्राही थी। वे एक छोटे दृष्टान्त में पूरी बात कह जाते थे। स्नेह, दया और सेवा के द्वारा ही उन्होंने लोक सुधार की सदा शिक्षा दी। इनके प्रिय शिष्य विवेकानन्द ने एक बार इनसे पूछा महाशय! क्या आपने ईश्वर को देखा है? महान साधक रामकृष्ण ने उत्तर दिया, हां देखा है, जिस प्रकार तुम्हें देख रहा हूं, ठीक उसी प्रकार, बल्कि उससे कहीं अधिक स्पष्टता से। वे स्वयं की अनुभूति से ईश्वर के अस्तित्व का विश्वास दिलाते थे। आध्यात्मिक सत्य, ज्ञान के प्रखर तेज से भक्ति ज्ञान के रामकृष्ण पथप्रदर्शक थे। काली माता की भक्ति में अवगाहन करके वे भक्तों को मानवता का पाठ पढाते थे। एक बार उनके परम शिष्य विवेकानंद कुछ समय के लिए हिमालय में तप करने के लिए उनसे आज्ञा मांगने गए। उन्होंने कहा वत्स हमारे आसपास लोग भूख से तडप रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया हुआ है और तुम हिमालय की गुफा में समाधि का आनंद प्राप्त करोगे? क्या तुम्हारी आत्मा यह सब स्वीकार कर पाएगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। मां काली के सच्चे भक्त परमहंस देश सेवक भी थे। दीनदुखियों की सेवा को ही वे सच्ची पूजा मानते थे। 15 अगस्त, 1886 को तीन बार काली का नाम उच्चारण कर रामकृष्ण समाधि में लीन हो गए। रामकृष्ण समझते थे कि उन्होंने मां काली का हाथ नहीं पकड़ा हुआ है अपितु मां काली ने उनका हाथ पकड़ा हुआ है। इस कारण उनको कभी किसी के कथन की कोई चिन्ता ही नहीं रही।

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