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जिनके होंठों पर थी विट्ठल विट्ठल की गूंज – संत तुकाराम

गली -गली में, घर-घर तक विट्ठल नाम की गूंज पहुंचाते लोकगायक का नाम आते ही आंखों के सामने मराठी भाषा के सर्वश्रेष्ठ संतकवि तुकाराम का चित्र उभरता है। उनके अभंग जन-जन के कंठ में बसे हैं और यह संदेश भी कि प्रभु को अपने जीवन का केंद्र बनाओ। प्यार की राह पर चलो। दीनों की सेवा करो और देखोगे कि ईश्वर सब में है। संत कवि तुकाराम (1608-1650) पुणे के देहू कस्बे के छोटे-से कारोबारी परिवार में 17वीं सदी में जन्मे थे। उन्होंने ही महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव डाली । तुका ने एक रात स्वप्न में 13वीं सदी के चर्चित संत नामदेव और स्वयं विट्ठल के दर्शन किए। संत
ने तुका को निर्देश दिया, तुम अभंग रचो और लोगों में ईश्वर भक्ति का प्रसार करो। ग्रंथ पाठ और कर्मकांड से दूर रह कर तुका ने प्रेम के जरिए आध्यात्मिकता की खोज को महत्व दिया । उन्होंने अनगिनत अभंग लिखे। मराठी में लिखी कविताओं के अंत में लिखा होता, तुका मन्हे , यानी तुका ने कहा-।

बहुत-से पुरोहितों ने संत तुका का प्रतिरोध किया, क्योंकि वे अभंग रचनाओं में पाखंड और कर्मकांड का उपहास उड़ाते थे। कुछ ने तुका के अभंग रचनाओं की पोथी नदी में फेंक दी और धमकी दी, तुम्हें जान से मार देंगे। पुरोहितों ने व्यंग्य करते हुए कहा, यदि तुम प्रभु के वास्तविक भक्त हो, तो अभंग की पांडुलिपि नदी से बाहर आ जाएंगी। आहत तुका भूख हड़ताल पर बैठ गए और अनशन के 13वें दिन नदी की धारा के साथ पांडुलिपि तट पर आ गई। आश्चर्य यह कि कोई पृष्ठ गीला भी नहीं था, नष्ट होना तो दूर की बात!

तुका कई बार अवसाद से भी घिरे। जीवन में दुविधाएं तुकाराम की लगन पर विराम न लगा पाई। भगवत भजन उनके कंठ से अविराम बहते। वे कृष्ण के सम्मान में निशदिन गीत गाते और झूमते। एक क्षण ऐसा आया, जब उन्होंने प्राणोत्सर्ग की ठानी, लेकिन इसी पल उनका ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। वह दिन था और फिर सारा जीवन तुका कभी नहीं डिगे। उनका दर्शन स्पष्ट था, चुपचाप बैठो और नाम सुमिरन करो। वह अकेला ही तुम्हारे सहारे के लिए काफी है । उनकी राह पर चलकर वारकरी संप्रदाय बना, जिसका लक्ष्य था समाजसेवा और हरिसंकीर्तन मंडल। इसके अनुयायी सदैव प्रभु सुमिरन करते हैं । आषाढ के महिने में विट्ठल दर्शन के लिए पंढरपुर की वारी (यात्रा) का समय आता है तो पहले आलंदी ग्राम से ज्ञानदेव की पालकी चलती है, बाद में देहू ग्राम से तुकाराम की पालकी आती है, और ये दोनों पंढरपुर तक जाते हैं। आषाढ और कार्तिक के महिने में हर दिन एक एक लाख के करीब वारकरी पंढरपुर पहुँचते है। वहाँ इन में से कई हजार पंढरपुर की ’माला धारण’ करते है। फिर इन्हें वारकरी नही बल्कि
मालकरी कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति जब तक माला धारण करे, वह तंबाखू, शराब या कोई अन्य
दुर्व्यसन नही करता, न ही मांसाहार करता है। माला उतारने के लिये वापस पंढरपुर जाना पडता है। तुका ने कितने अभंग लिखे, इनका प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन मराठी भाषा में हजारों अभंग तो लोगों की जुबान पर ही हैं। पहला प्रकाशित रूप 1873 में सामने आया। इस संकलन में 4607 अभंग संकलित किए गए थे।

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