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राजस्थान के पीरों के पीर बाबा रामदेव पीर, जिनकी समाधि पर शीश नवाने से आज भी होते हैं चमत्कार  

खम्मा खम्मा खम्मा ओ , कंवर अजमाल रा
थान्ने तो पूजे राजस्थान जीयो , गुजरात जीयो
हो रामा घणी घणी खम्मा , म्हारे द्वारका रे नाथ ने


भारत की इस पवित्र धरती पर समय समय पर अनेक संतों, महात्माओं, वीरों व सत्पुरुषों ने जन्म लिया है ओर उस समय की आवश्‍यकतानुसार उन्‍होंने समाज को नई राह दिखाकर समाज का कल्‍याण किया साथ ही दुखों से त्रस्त मानवता को दुखों से मुक्ति दिला जीने की सही राह दिखाई ।

 मध्यकाल में जब अरब, तुर्क और ईरान के मुस्लिम शासकों द्वारा भारत में हिन्दुओं पर अत्याचार कर उनका धर्मांतरण किया जा रहा था, तो उस काल में हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए सैकड़ों चमत्कारिक सिद्ध, संतों और सूफी साधुओं का जन्म हुआ। उन्हीं में से एक हैं रामसा पीर  । ऐसे विकट समय में पश्चिम राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर चेत्र शुक्ला पंचमी वि.स. 1409 को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए । जिन्होंने लोक में व्याप्त अत्याचार, जातिगत वैर-द्वेष, छुआछुत का विरोध कर अछुतोत्थान का सफल आन्दोलन चलाया ।बाबा ने अधिकतर दलितों, पिछड़ों व निर्धनों के मध्‍य उनके कष्‍ट निवारण में विशेषकर ध्‍यान दिया ।

क्या होता है परचा देना, जानिए…

 बाबा ने अपने जीवनकाल में लोगों की रक्षा और सेवा करने के लिए उनको अनेकों  चमत्कार दिखाए। आज भी बाबा अपनी समाधि पर साक्षात विराजमान हैं। आज भी वे अपने भक्तों को चमत्कार दिखाकर उनके होने का अहसास कराते रहते हैं। बाबा द्वारा चमत्कार दिखाने को परचा देना कहते हैं।

एक प्रचलित कथानक के अनुसार, रामदेव जी की परीक्षा के लिए मक्का−मदीना से पांच पीर
रामदेवरा आये और उनके अतिथि बने। भोजन के समय पीरों ने कहा कि वे स्वयं के कटोरे
में ही भोजन करते हैं। रामदेव ने वहीं बैठे−बैठे अपनी दाई भुजा को इतना लम्बा फैलाया कि मदीना से उनके कटोरे वहीं मंगवा दिये। पीरों ने उनका चमत्कार देखकर उन्हें अपना गुरु (पीर) माना और यहीं से रामदेव जी का नाम रामसा पीर पड़ा और बाबा को “पीरो के पीर रामसा पीर” की उपाधी भी प्रदान की गई। इस घटना से मुसलमान इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भी इनकी पूजा करनी शुरू कर दी।

 जीवित समाधी लेने वाले रामदेव बाबा के हर मंदिर में आज भी होते हैं चमत्कार

जन-जन की सेवा के साथ सभी को एकता का पाठ पढाते बाबा रामदेव ने भाद्रपद शुक्ला एकादशी वि.स . 1442 को 33 वर्ष की आयु में जीवित समाधी ले ली । श्री बाबा रामदेव जी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर सब बड़े बुढ़ों को प्रणाम किया तथा सबने पत्र पुष्प् चढ़ाकर रामदेव जी का हार्दिक तन मन व श्रद्धा से अन्तिम पूजन किया । रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा ‘प्रति माह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि
जागरण करना । प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा।  मेरे समाधी पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहूंगा । इस प्रकार श्री रामदेव जी महाराज ने समाधी ली ।

रामदेवजी ने तत्कालीन समाज में व्याप्त छूआछूत, जात−पांत का भेदभाव दूर करने तथा नारी व दलित उत्थान के लिए प्रयास किये। अमर कोट के राजा दलपत सोढा की अपंग कन्या नेतलदे को पत्नी
स्वीकार कर समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया। दलितों को आत्मनिर्भर बनने और सम्मान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने पाखण्ड व आडम्बर का विरोध किया। उन्होंने सगुन−निर्गुण, अद्वैत, वेदान्त, भक्ति, ज्ञान योग, कर्मयोग जैसे विषयों की सहज व सरल व्याख्या की। आज भी बाबा की वाणी को “हरजस” के रूप में गाया जाता है। भारत में अनेकों जगह रामदेव बाबा के
समाधीस्वरूप मंदिर बने हुए हैं . आज भी रामदेव बाबा पीर  की समाधी स्वरूप मंदिर में जाकर लोग उनसे अपनी समस्या बताते हैं , उनकी मन्नत मानते हैं और चमत्कारिक रूप से समस्याओं का निराकरण व मन्नतें पूरी होती हैं.

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