वो ख्वाबों के दिन
( पिछले 7 अंकों में आपने पढ़ा : मन में अनेक अरमान लिए एक गांव से शहर पढ़ने आये एक युवा के दिल की धड़कन बढ़ा देती है , एक दिन अचानक , एक बंगले की पहली मंज़िल की खिड़की . वह देखता है वहां पर एक नाज़ुक व बेहद खूबसूरत युवती जोकि उसकी कल्पना से भी ज़्यादा सुंदर होती है . फिर एक दिन उसे महसूस होता है कि उस खिड़की के सैंकड़ों चक्कर बिलकुल बेअसर नहीं हैं . उस युवती के इशारों इशारों में जवाब और आगे मस्ती से भरी फोन पर शुरू हो चुकी बातचीत ने एक खूबसूरत आकार लेना शुरू कर दिया )
एक प्रेम कहानी अधूरी सी ….
(पिछले रविवार से आगे की दास्तान – 8 )
वह फिर हंसी और बोली , देखिये मिलना तो मैं भी चाहती हूं पर आगे बढ़िये हुज़ूर आहिस्ता , जनाब आहिस्ता आहिस्ता . फोन रखने के पहले फिर से थोड़े गम्भीर अंदाज़ में बोली , मेरी इस बातचीत को आप दोस्ती तक ही समझें और प्यार समझने की तो गलती ही मत करना . मैंने अपने अंदाज़ में हंसते हुए एक शेर ठोक दिया . वही दिलकश हंसी और फोन के क्लिक की आवाज़ सुनाई दी . समझ तो आ गया था कि अब जल्दी ही मिलना है पर कब , कैसे और कहां ?
मिलने की लगन सच्ची हो अगर , तो इक दिन मेरा आयेगा
जब हाथो में होगा हाथ हमारा , तब यार मेरा शरमायेगा
अगले दिन सुबह वह सफेद ड्रेस में एकदम तैयार होकर , वह बेहद खूबसूरत दिखी . कभी एकटक सड़क की तरफ देखती , कभी मेरी तरफ , कभी आकाश की तरफ . ऐसा लग रहा था कि वह कहीं जाने की तैयारी में है पर साथ ही भारी सोच में डूबी हुई है . मेरा दिल बैठने लगा कि आज टेलीफोन पर बात हो पायेगी या नहीं ? मैंने इशारे में टेलीफोन में बात करने की एक्टिंग की तो उसने उदासी के साथ दायें बायें सिर हिलाकर ना जैसा इशारा किया . मेरी समझ में आ गया कि उसे भी कहीं बाहर जाना पसंद नहीं आ रहा है पर कोई ना कोई मजबूरी होगी जिसके कारण उसे जाना ही होगा . मैंने भी आकाश की तरफ दोनो हाथ दुआओं की तरह उठाते हुए इशारा किया जैसे कि कहना चाह रहा हूं , अब जैसी उसकी मर्ज़ी . मैंने देखा कि उसने तीन उंगलियां उठा दीं . इतने में मुझे लगा कि अंदर घर से उसे किसी ने आवाज़ दे दी और उसने तीन उंगलियों से मुझे बाय का इशारा किया और भाग कर चली गई .
उनके हर अंदाज़ व इशारे बहुत खास होते हैं
पर ना समझने पर , हम बहुत निराश होते हैं
लौटते लौटते मैं उसके रहस्य की पहेली को सुलझाने में लग गया . सबसे पहले मुझे लगा कि वह मुझे बताना चाह रही है कि रोज़ दोपहर तीन बजे हमारे फोन की बात उसके घर में पता लग गई . फिर सोचा यदि ऐसा होता तो वह इतना तैय्यार होकर क्यों आती ? फिर लगा कि वह बताना चाह रही है कि आज तीन बजे बात करना करना संभव नहीं है . इसी उधेड़बुन में मैं होस्टल आ गया और वहां से कॉलेज के लिये निकल गया . रोज़ कॉलेज जाते समय दोस्तों के साथ चुहलबाज़ी करने वाला मैं उस दिन थोड़ा व्याकुल सा रहा जैसे सारी रात जागते रहा होऊं . एक दोस्त ने मज़ाक़ कर ही दिया
आज कल होस्टल में मस्ती करते उल्लू बहुत सारे नज़र आते हैं
रातभर नहीं सोते इसलिये उनको दिन में तारे नज़र आते हैं
मैं जवाब देने में कहां पीछे रहने वाला था , मैंनेभीनहलेपरदहलामारदिया
सुना है पागल खाने की दीवार फांदकर कुछ पागल फरार हो गये
उनमें से कुछ वापस लौट गये और कुछ हमारे यार हो गये
कॉलेज से लौटने के बाद . 3 बजे से पहले मैं टेलीफोन बूथ पर जा पहुंचा ठीक तीन बजे फोन लगाया पर नो रिप्लाई आया . फिर हर पांच मिनट में फोन पर घंटी देता रहा . कोई प्रतिक्रिया नहीं थी . वहां से निकल कर उसके घर की तरफ गया . कोई चहल – पहल नहीं दिखी . रात को फिर उसके घर की तरफ चक्कर लगाने गया . ऐसा लगा कि घर में कोई नहीं है . अगले तीन दिनों में मैंने ना जाने कितने फोन और उसके घर के कितने चक्कर लगाये ? दोपहर कॉलेज से लौटकर , मैं देखता हूं कि उसकी बालकनी से एक गुलाबी दुपट्टा लटक रहा है . अब मेरी जान में जान आई . इसका मतलब यह था कि उस दिन उसका इशारा था कि 3 दिन के लिये बाहर जा रही है .
कहूं किस तरह से कि वो बेवफा है
मुझे उसकी मजबूरियों का पता है
दोपहर 3 बजे मैंने फोन लगाया तो एक घंटी पर ही उसने फोन उठा लिया . वो बोली , ध्रुव . मैंने कहा , हां , मलिका . मुझे लगा कि जैसे उसका गला भर आया . उसने रुंधे गले से मुझसे कहा , मुझे ज़रूरी काम से अहमदाबाद जाना पड़ा . आपको बताने की कोशिश की थी . नाराज़ हैं , मुझसे ? मैंने कहा , भला क्यों ? मलिका को तो हक़ होता है कि वह अपने बंदे को बहुत सताये . वह फिर से खिल उठी और सचमुच नखरे दिखाते हुए बोली ,’मा बदौलत चाहती हैं कि आप नेहरू पार्क के स्वीमिंग पूल के पास के बगीचे में मुझसे कल सुबह साढ़े दस बजे मिलिये ‘. मेरा दिल बल्लियों उछलने लगा .
तेरी एक मुस्कुराहट नींद उड़ा गयी मेरी
तेरा दीदार ही रोग है और इलाज़ भी है
(अगले रविवार अगली कड़ी)
इंजी.मधुर चितलांग्या, संपादक,
दैनिक पूरब टाइम्स