वीर गुंडाधूर एक प्रमुख भारतीय आदिवासी नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनका असली नाम महाराज गुंडाधूर था, और वे छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र के मुरिया जनजाति से थे। उनका जन्म 19वीं सदी के अंत में हुआ था। वे बस्तर के राजा भीमदेव के समय के थे, और उनकी भूमिका 1910 में बस्तर विद्रोह (जिसे ‘बस्तर रिवोल्ट’ या ‘बस्तर हूल’ के नाम से भी जाना जाता है) में महत्वपूर्ण रही है।
बस्तर विद्रोह की पृष्ठभूमि:
बस्तर विद्रोह 1910 में ब्रिटिश शासन के खिलाफ आदिवासी समुदायों के असंतोष का परिणाम था। ब्रिटिश सरकार ने बस्तर क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों, विशेषकर जंगलों पर अधिकार जमाने की कोशिश की। जंगलों पर ब्रिटिश नियंत्रण के कारण आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों में कटौती हो गई, और उनके जीवन पर गहरा असर पड़ा। इन नीतियों के खिलाफ आदिवासी समुदाय में भारी असंतोष पैदा हुआ
विद्रोह का परिणाम:
बस्तर विद्रोह को अंततः ब्रिटिश प्रशासन ने दबा दिया, लेकिन वीर गुंडाधूर की बहादुरी और नेतृत्व को आज भी छत्तीसगढ़ में बड़े सम्मान से याद किया जाता है। उनका नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर हो गया है, खासकर छत्तीसगढ़ और बस्तर क्षेत्र में। उनके योगदान के कारण, उन्हें आदिवासी समुदाय और अन्य लोगों के बीच वीरता और स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में सम्मानित किया जाता है।
गुंडाधुर से छिपने के लिए अंग्रेजो ने गुफाओं का सहारा लिया
बस्तर के साहित्यकार और चित्रकार सुभाष पांडे बताते हैं कि एक छोटे से गांव में पले बढ़े गुंडाधुर ने अंग्रेजों को इस कदर परेशान किया था कि कुछ समय के लिए अंग्रेजों को गुफाओं में छिपना पड़ा था. अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाला यह क्रांतिकारी आज भी बस्तर के लोगों में जिंदा है. उन्होंने बताया कि बस्तर जिले के नेतानार गांव में पले बढ़े गुंडाधुर ने आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन के रक्षा के लिए अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 10 फरवरी सन 1910 में भूमकाल आंदोलन की शुरुआत की थी. लगातार बस्तर वासियों का शोषण होता देख अंग्रेजो के खिलाफ आवाज उठाने का बीड़ा शहीद गुंडाधुर ने उठाया. भूमकाल आंदोलन में लाल मिर्च क्रांतिकारियों की संदेशवाहक कहलाती थी.
35 साल की उम्र में अंग्रेजो के खिलाफ छेड़ी थी जंग
सुकमा के जमींदार और इस मामले के जानकार कुमार जयदेव ने बताया कि बस्तर में अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाने के लिए गुंडाधुर ने गांव-गांव तक लाल मिर्च, मिट्टी का धनुष बाण और आम की टहनियां लोगों के घर तक पहुंचाई. यह काम इस मकसद से शुरू किया कि लोग बस्तर के अस्मिता को बचाने के लिए अंग्रेजो के खिलाफ आगे आए. अंग्रेजों के खिलाफ उठाई गई इस आवाज में न जाने कितने आदिवासियों ने अपनी जान की कुर्बानी दे दी. बस्तर में शहीद गुंडाधुर को विद्रोहियों का सर्वमान्य नेता माना जाता है. वे सामान्य आदिवासी थे, जिन्होंने बचपन से ही आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की रक्षा और उनकी जान की रक्षा करने की ठान ली थी.
भूमकाल आंदोलन ने पूरी ब्रिटिश सत्ता को हिला कर रख दिया
यही वजह रही कि 35 साल की उम्र में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ ऐसी लड़ाई छेड़ी कि कुछ समय तक अंग्रेजों को जंगलों में गुफाओं का सहारा लेना पड़ा था. बताया जाता है कि उस जमाने के कई अंग्रेज अफसरों ने अपनी डायरी में भूमकाल आंदोलन को लेकर कई बातें भी लिखी है. जो आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है. बस्तर की संपदा लूट रहे अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हुए भूमकाल आंदोलन ने पूरी ब्रिटिश सत्ता को हिला कर रख दिया. बताया जाता है कि इस आंदोलन के कई वीर सपूतों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया. जिसका गवाह आज भी जगदलपुर शहर के गोल बाजार चौक पर स्थित इमली का पेड़ है. जहां इस आंदोलन से जुड़े लोगों को मौत की सजा दे दी गई थी.
राज्य सरकार ने दिया है शहीद का दर्जा
अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले वीर शहीद गुंडाधुर को राज्य सरकार ने शहीद की उपाधि दी है. राज्य सरकार खेल प्रतिभाओं को उनके नाम पर पुरस्कृत करती है. साथ ही कई सरकारी भवनों के नाम भी शहीद गुंडाधुर के नाम पर रखा गया है. यही नहीं बस्तर संभाग के नेतानार गांव में संभाग की सबसे बड़ी प्रतिमा स्थापित की गई है. इसके अलावा संभाग के हर जिलों में उनकी प्रतिमा स्थापित कर भूमकाल दिवस पर श्रद्धांजलि कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है. इसके अलावा तीरंदाजी प्रतियोगिता में खिलाड़ियों को शहीद गुंडाधुर अवार्ड से सम्मानित किया जाता है.
उनका जीवन और मृत्यु का विवरण मुख्यतः लोककथाओं और स्थानीय इतिहास में संरक्षित है। विद्रोह के बाद उन्होंने जंगलों में शरण ली और गुमनाम जीवन जीने लगे। इसके कारण उनकी मृत्यु के बारे में कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है।
बस्तर क्षेत्र में गुंडाधूर को आज भी आदिवासी समुदाय के बीच एक महानायक के रूप में याद किया जाता है, और उनकी मृत्यु से जुड़ी रहस्यमयी कहानियां और किंवदंतियां प्रचलित हैं। उनकी बहादुरी और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उनके संघर्ष को इतिहास में हमेशा सम्मान के साथ देखा जाता है।
गुंडाधूर की विरासत केवल इतिहास का एक हिस्सा नहीं है, बल्कि यह आज भी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक संदर्भों में जीवंत है। उनकी कहानी संघर्ष, साहस और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण की अनूठी मिसाल है, जिसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में हमेशा याद किया जाएगा।