श्री स्वामी समर्थ अर्थात अक्कलकोट स्वामी महाराष्ट्र के अक्कलकोट में दत्त संप्रदाय के एक महान संत थे। ऐसा माना जाता है कि वह श्रीपाद वल्लभ और श्रीनृसिंहसरस्वती के बाद भगवान श्री दत्तात्रेय के तीसरे पूर्णावतार अवतार हैं। गणगापुर के श्री नरसिंह सरस्वती बाद में श्रीस्वामी समर्थ के रूप में प्रकट हुए। स्वामी के मुख से उद्घोष, “मैं नरसिंह हूं और श्रीशैलम के पास मैला जंगल से आया था” बताता है कि वह नरसिंह सरस्वती के अवतार हैं . गणागापुर के स्वामी ‘नरसिंह सरस्वती’ के नाम से जाना जाता है तो वहीं कुछ जगहों पर उन्हें ‘चंचल भारती’ और ‘दिगम्बर स्वामी’ के नाम से भी जाना जाता है।
श्री गुरुचरित्र” पवित्र ग्रंथ में उल्लेख है कि सन 1458 में श्रीमद नरसिम्ह सरस्वती ने कर्दालि वन में महासमाधि ली थी। इसी वन में वह 300 वर्ष से अधिक सम्य प्रगाढ़ समाधि अवस्था में थे। उनके दिव्य शरीर के चारों ओर चींटियों ने भयंकर बांबी निर्माण कर लिया था । वह चलित दुनिया से दूर हो गए थे। एक दिन एक लकड़हारे की कुल्हाड़ी गलती से बांबी पर गिर गई जब उसने कुल्हाड़ी उठाई तो उसे खून के धब्बे दिखाई दिए उसने वहां की झाड़ी व बांबियों की सफाई की तो देखा की एक बुजुर्ग योगी साधना में लीन थे। घबराकर वह योगीराज के चरणों पर गिर पड़ा और ध्यान भंग करने की क्षमा मांगने लगा। स्वामी जी ने आंखें खोलीं और उससे कहा कि तुम्हारी कोई गलती नहीं है, यह मुझे फिर से दुनिया में जाकर अपनी सेवाएं देने का दैवीय आदेश हैं।
उस दिव्य शक्ति को आज हम श्री स्वामी समर्थ नाम से जानते है। समाधी से निकलने बाद स्वामी जी ने सम्पूर्ण देश की यात्रा की। कहते हैं कि वह बहुत जगह घूमे। प्रथम वह काशी में प्रकट हुए। आगे कोलकाता जाकर उन्होंने काली माता के दर्शन किए।
उन्होंने कई बार जगन्नाथ पूरी, बनारस (काशी), हरिद्वार, गिरनार, काठियावाड़ और रामेश्वरम और साथ ही चीन, तिब्बत और नेपाल जैसे विदेशो में भेट दी।
इसके पश्चात गंगा तट से अनेक स्थानों का भ्रमण करके वह गोदावरी तट पर आए। वहां से हैदराबाद होते हुए 12 वर्षों तक वह मंगल वेढ़ा रहे। तदोपरांत पंढरपुर, मोहोल, सोलापुर मार्ग से अक्कलकोट आए।
नए स्वरूप में अक्कलकोट में रह कर लगभग 600 वर्ष की आयु में उन्होंने महासमाधि ली।
अक्कलकोट से पूर्व वो मंगलवेढ़ा शहर जो पंढरपुर(सोलापुर जिला) के नज़दीक है , रहा करते थे। 22 साल तक वो अक्कलकोट के बाहरी हिस्से में रहे। कर्नाटक के गणगापुर में लम्बे समय तक रहने के पश्चात उन्होंने अपनी निर्गुण पादुका अपने शिष्यों की दे दी और उसके बाद वो कर्दाली जंगल में जाने के लिए रवाना हुए।
स्वामी समर्थ क्षण में अदृश्य होते थे तथा अचानक प्रकट भी होते थे । स्वामी गिरनार पर्वतपर अदृश्य हुए तथा दूसरे ही क्षण आंबेजोगाई में प्रकट हुए । हरिद्वार से काठेवाड के जीविक क्षेत्र स्थित नारायण सरोवर के बीचोबीच सहजासन में बैठे दिखाई दिए । तदुपरांत भक्तों ने उन्हें पंढरपुर की भीमा नदी की बाढ में चलते हुए देखा ।
स्वामी समर्थ की दृष्टि में धनवान तथा निर्धन सब एक जैसे ही थे । उन्हें सीधा-साधा भोला भक्तिभाव बहुत अच्छा लगता था । उनके ह्रदय में सामान्य लोगों के लिए बहुत प्रेम था । स्वामी समर्थ बहुत तेजस्वी थे । उनके मुखमंडल पर कोटि सूर्यों का तेज शोभायमान होता था । उनके नेत्रों में अपरंपार करुणा थी । भक्तों पर आए संकट वे दूर करते थे ।
स्वामीजी ने मंगळवेढा स्थित बसप्पा का दारिद्र्यनष्ट किया । उसके लिए सर्पों को सुवर्ण में बदल दिया । उस गांव के बाबाजी भट नाम के ब्राह्मण गृहस्थ का सूखा कुआं पानी से भर दिया । पंडित नाम के अंधे ब्राह्मण के नेत्रों की ज्योति वापस लाई । स्वामी समर्थ ने ये सारे चमत्कार लोगों में भक्तिमार्ग की जागृति लाने हेतु दिखाए ।
स्वामी समर्थद्वारा अपने रूप में तथा भक्त को उसके इच्छित देवता के रूप में दर्शन देने की जानकारी अनेक कथाओं द्वारा ज्ञात होती है । महान कृष्णभक्त सूरदास जन्मांध थे । सगुण साकार श्रीकृष्ण का दर्शन हो, यह उनकी बडी इच्छा थी । स्वामी समर्थ सूरदास के आश्रम में जाकर खडे हो गए तथा सूरदास को आवाज दी । कहा, ‘तुम जिसके नाम से आवाज दे रहे हो, देखो वह मैं तुम्हारे दरवाजे पर खडा हूं । सूरदास, जरा देखो ।’ इतना कहकर समर्थ ने उनके दोनों नेत्रों को हस्तस्पर्श किया । तभी सूरदास को दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तथा उन्हें शंख, चक्र, गदाधारी श्रीकृष्ण का सगुण रूप दिखने लगा । सूरदास गदगद हो गए । थोडी देर के पश्चात चेतना वापस आनेपर स्वामी समर्थ ने उन्हें अपने वास्तविक रूप का दर्शन कराया । सूरदास भावविभोर हो गए तथा स्वामी समर्थ से कहा, ‘आपने मुझे दिव्यदृष्टि दी है । अब इस जन्ममृत्यु के चक्र से मुझे मुक्त कीजिए !’ स्वामी समर्थ ने सूरदास को, ‘तुम ब्रह्मज्ञानी बनोगे !’ यह आशीर्वाद दिया ।
अक्कलकोट के परब्रह्म श्री स्वामी समर्थ अपने भक्तों को सुरक्षा का वचन देते हुए कहते थे, ‘‘डरो नहीं, मैं तुम्हारी पीठ पीछे हूं।’’ भक्तों को आज भी इसका भान होता है।