एक बार देवता और असुरों ने मिल कर, अमृतरस प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। दोनों चिर प्रतिद्वन्धि सदैव से ही एक दूसरे के शत्रु थे। किंतु जब पता चला, कि समुद्र मंथन से प्राप्त होने वाले अमृत का पान कर, वे सदा के लिए अमर हो जायेंगे, तो वे स्वार्थ हेतु एकत्र हो गये। गोस्वामी तुलसीदास जी भगवान शंकर के सुंदर श्रृंगार का, बड़ी प्रीति से वर्णन कर रहे हैं। ठीक भी है, क्योंकि संसार में जीवों के हिस्से में तो, अन्य प्रतिद्वन्धियों की निंदा करना ही लिखा होता है। किंतु गोस्वामी जी का परम सौभाग्य, कि वे निंदा से कोसों दूर, भगवान के श्रृंगार रस को चित्रित कर रहे हैं। अन्य श्रृंगारों की भाँति ही, भगवान शंकर का एक अन्य विशिष्ट श्रृंगार है, उनके गले का नीला होना। जो कि शिवगणों के द्वारा नहीं किया गया था, अपितु यह एक महान व दिव्य घटना का प्रतिबिंब है।
हुआ यूँ था, कि एक बार देवता और असुरों ने मिल कर, अमृतरस प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। दोनों चिर प्रतिद्वन्धि सदैव से ही एक दूसरे के शत्रु थे। किंतु जब पता चला, कि समुद्र मंथन से प्राप्त होने वाले अमृत का पान कर, वे सदा के लिए अमर हो जायेंगे, तो वे स्वार्थ हेतु एकत्र हो गये। समुद्र को मथने के लिए मंदरा पर्वत का प्रयोग किया गया था। इस विशाल मंदराचल को मथने के लिए रस्सी भी कोई साधारण नहीं थी, अपितु वासुकी नाग को ही रस्सी के रुप में प्रयोग किया गया था। जिसे एक ओर से देवतायों व दूसरी ओर से असुरों ने पकड़ रखा था।
शायद सभी की भावना रंग भी ले आती, और सभी अमृत को प्राप्त कर लोक कल्याण में तत्पर होते। लेकिन महान लक्ष्य को पाने के लिए भावना भी तो पावन व महान होनी चाहिए थी। जो कि देवताओं व असुरों, दोनों में ही नहीं थी। देवता चाह रहे थे, कि वे इसलिए अमर हो जायें, क्योंकि वे दिल भर कर, आठों पहर विषयों का रसपान कर सकें। दूसरी ओर दानवों की हीन सोच ऐसी थी, कि वे अमर होकर संपूर्ण लोकों पर शाषण करना चाहते थे। उनके लिए देवता तो आधीन होने ही चाहिए थे, साथ में वे साधु संतों व सज्जन पुरुषों को भी प्रताड़ित, कर उन्हें दास बनाना चाहते थे। इसीलिए भगवान ने भी एक विचित्र लीला की। जब सभी एकत्र हुए और मंदराचल पर्वत से समुद्र मथा गया, तो सोच से पूर्णतः उल्टा चक्र धूम गया। क्योंकि समुद्र मंथन से निकलना तो था अमृत, ओर निकल गया महाभयंकर कालकूट विष।
मानों हाथ में आने वाला था कोहिनूर हीरा, और जब हाथ में रखा गया, तो वह कोयले का कंकड़ निकला। आशा मानों की हो, कि हमारे द्वार पर स्वयं गंगाजी का आगमन होने वाला है, किंतु दुर्भाग्य ऐसा हो, कि आँगन में गंदा नाले का लावा ही फूट पड़े। असुरों व दानवों के साथ ऐसा ही हुआ। सोचे थे, कि अभी अमृत को प्राप्त कर वे अमर होने वाले हैं। किंतु सभी अचंभित हो गये, जब समुद्र मंथन में सबसे पहले कालकूट विष का फुँहारा फूट पड़ा। देवता व दानव यह देख कर भौंचक्के रह गये। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था, कि यह क्या हो गया? ऐसा सौदा तो उन्होंने किया ही नहीं था, जो कि उन्हें प्रतिफल में प्राप्त हो रहा था। बात इतनी सी भी होती, तो कोई बात नहीं थी। विष था, तो उसे कहीं बहा दिया जाता। कहीं न कहीं ठिकाने लगा दिया जाता। किंतु उस विष की विषाक्त क्षमता ऐसी भयंकर जानलेवा थी, कि विष अपनी चपेट में तीनों लोकों को लेने लगा। थलचर, नभचर व जलचर में से कोई भी जीव ऐसा नहीं था, जो उस कालकूट विष से बच पाये। चारों ओर त्रहिमाम त्रहिमाम मच गया। बड़े-बड़े बलवानों का बल धरा का धरा रह गया। कोई उस विष का सामना नहीं कर पा रहा था। सभी मिलकर ब्रह्मा जी की शरण में गये, किंतु उन्होंने इस विक्ट घड़ी को सुखद घड़ी में बदलने में असमर्थता प्रगट की। फिर सभी ने भगवान विष्णु जी से प्रार्थना की। किंतु इस बार भी सबकी झोली में निराशा ही हाथ लगी। अंतः अब एक ही आशा की किरण थी, और वह थे भगवान शंकर। सभी मिलकर भगवान शंकर की ओट लेते हैं। उन्हें अपनी करुण पुकार सुनाते हैं। हर प्रकार से उनकी स्तुति करते हैं।