वो ख़्वाबों के दिन
( पिछले 3 अंकों में आपने पढ़ा : मन में अनेक अरमान लिए एक गांव से शहर पढ़ने आये एक युवा के दिल की धड़कन बढ़ा देती है , एक दिन अचानक , एक बंगले की पहली मंज़िल की खिड़की . वह देखता है वहां पर एक नाज़ुक व बेहद खूबसूरत युवती जोकि उसकी कल्पना से भी ज़्यादा सुंदर होती है . फिर एक दिन उसे महसूस होता है कि उस खिड़की के सैंकड़ों चक्कर बिलकुल बेअसर नहीं हैं . एकतरफा आकर्षण के कारण उस युवा की अंदरूनी कश्मकश और समर्पण की दास्तान )
एक प्रेम कहानी अधूरी सी ….
(पिछले रविवार से आगे की दास्तान – 4 )
एक अजीब सी बेचैनी सी छाई थी .सोचता था कि कल मैं बुत बनकर खड़ा नहीं रहूंगा . इशारों में ही अपना हाल दिल बयान कर दूंगा . सोचता था कि इज़हार के बाद प्रेम गहरा होता है पर इंकार हुआ तो क्या होगा ? सुबह , जब मैं उसके घर के पास पहुंचा तो वह खिड़की खुली हुई थी. मैं आंखे गड़ाकर देखता रहा कोई हलचल नहीं दिखी . तब मैंने खुद से कहा –
आए कभी चौबारे में वो
कुछ सोचे मेरे बारे में वो
अरे, बातें करे दो इशारे में वो
छुप के खड़ी है उस किनारे में वो
वो दिन और वो रात , बस इसी उधेड़बुन में निकल गया कि उसने मुझे कोई और समझ कर इशारा तो नहीं कर दिया . या फिर उसने मज़ाक़ से इशारा किया , फिर खुद ही घबरा गई कि मैं गलत फहमी पाल कर उसके पीछे ना पड़ जाऊं . मैंने मन ही मन कहा कि तुम घबराओ नहीं , तुमने कोई गलती नहीं की है . अगली सुबह , जब मैं उसके घर के पास पहुंचा तो वह खिड़की बन्द थी. मैं आंखे गड़ाकर देखता रहा कोई हलचल नहीं दिखी . ना ही खिड़की खुली . बेहद मायूस और रुंआसा होकर मैं लौट आया . फिर एक सिलसिला चालू हो गया उस दिन से मैं बेहद सुबह उसकी खिड़की के सामने आकर खड़ा हो जाता . चार – पांच दिन तक वह नहीं आई और मैं लगभग बीमार हो गया . बस , रह रहकर गालिब का एक शेर ज़ेहन पर आने लगा –
दिले नादां तुझे हुआ क्या है , अखिर इस दर्द की दवा क्या है
हमको उनसे वफा की है उम्मीद ,जो नहीं जानते वफा क्या है
मायूस सा मैं जैसे अपनी ड्यूटी निभाते हुए ,अगले दिन फिर अपनी जगह पर पहुंचा तो देखा कि वह एकटक रास्ते की तरफ देख रही थी . मैंने नाराज़गी से अपना चेहरा घुमा लिया पर फिर रहा नहीं गया . ऊपर देखता हूं तो वह अपने कानों से अपने बाले ठीक करते हुए दिखी , कुछ इस अंदाज़ से कि जैसे कान पकड़ कर माफी मांग रही हो . फिर अचानक भागते हुए चली गई जैसे किसी ने उसे आवाज़ दी हो . मेरी तबियत मस्त हो गई . सारी रात नहीं सो पाया . पर दूसरे दिन से, फिर सचमुच का सिलसिला चल पड़ा . मैं चाहे जितना जल्दी उठकर वहां पहुंच जाता तो पाता कि वह उठती, बाहर देखती, कभी अंगड़ाई लेती तो कभी और खूबसूरत अदाएं देती. कभी कभी मुझे सताने के लिए किसी किताब को लेकर बैठ जाती और उसके पीछे से छुपकर मुझे देखती और मुझे अंदर तक गुदगुदा जाती. पर सीधे मुझसे नज़र नहीं मिलाती थी . कभी कभी ऐसा लगता कि किसी दूसरी खिड़की से छिपकर मुझे निहार रही है तो कभी बालों को संवारना , उन्हें झटकना , कभी सिर खुजाना , कभी अचानक़ भाग जाना, फिर लौट कर खिड़की बंद करना . लेकिन एक बात साफ थी यह सब वह बेहद सावधानी से करती थी ताकि किसी को पता ना चले , यानि शायद सब मेरे लिये ही करती थी . मेरी हिम्मत भी बढ़ गयी थी. सबकी नज़रों से बचकर, मैं भी सीधे उसकी तरफ देखता और सलाम करते हुए , गुड मॉर्निंग करता. समझ तो दोनों को आ गया था कि अब हम दोनों को एक दूसरे से मिलना ज़रूरी हो गया है.
तेरी हर अदा के हम पागल हो गए
खुद अपने आप ही घायल हो गए
चाहते थे दर्दे दिल दिखा राहत पाएंगे
पर उस दर्दे मज़ा के कायल हो गए
लगभग दो सप्ताह यह सिलसिला चलता रहा . उसने एक दिन इशारे से मुझसे कुछ कहना चाहा, मैं समझ नहीं पाया . अगले दिन सुबह वह खिड़की नहीं खुली मैं बेचैन सा उसे देखता खड़ा रहा . मुझे लग रहा था कि शायद वह यही बताना चाह रही होगी . इतने में खुशबू की बारिश करते वह मेरे पास से गुज़री, वह अपनी भाभी के साथ मॉर्निंग वॉक से लौट रही थी . जानबूझकर वह थोड़े पीछे रह गयी थी . मुझे मुस्कुराकर धीरे से , गुड मॉर्निंग कहा . और मुझे एक कागज़ की पर्ची थमाकर भाग खड़ी हुई. उस पर्ची में एक फोन नंबर लिखा था और लिखा था ‘ आज ३ बजे ‘ मैं तो दीवाना था ही अब पागल हो चुका था .
खुली आंखों में सपना झांकता है , वो सोया है या कुछ कुछ जागता है
तेरी चाहत के भीगे जंगलों में , मेरा तन मोर बनकर नाचता है
( अगले हफ्ते आगे का किस्सा )
इंजी . मधुर चितलांग्या , संपादक , पूरब टाइम्स