वो ख्वाबों के दिन
( पिछले 27 अंकों में आपने पढ़ा : प्यार की पहली मुलाकात पर शर्त के कारण मिले, दिल को सुकून और दर्द को उकेरते हुए , पहले प्रेम पत्र में दिल के जज़्बात को जोखिम उठा कर सही हाथों में पहुंचा दिया . फिर आंख मिचौली के किस्से चलने लगे और उसी दबंगाई से पहुंचाया गया जवाबी खूबसूरत प्रेम पत्र पढ़्कर मैं अपने होश खो बैठा . होश तब दुरुस्त हुए जब तुमसे फोन पर बात हुई . अब आगे ..)
एक प्रेम कहानी अधूरी सी ….
(पिछले रविवार से आगे की दास्तान – 28 )
फोन रखकर मैं तीर की तरह तुम्हारे घर की तरफ निकल पड़ा तुम्हारी एक झलक पाने को
सोचा तेरी एक झलक पाने को
बारिश की बूंद बन बरस जाऊं तेरे आंगन पे ,
मगर ये बेपरवाह हवाओं के झोके
बहा ले जाते हैं दूर, किसी और ठिकाने पे ….
अभी वल्लभ नगर के पहले चौक ही पहुंचा था कि मुझे न्यू होस्टल के अपनी बैच के दो साथी मिल गये , उनके साथ हमारा एक ज्यूनियर भी था . वे पूछने लगे कि कहां जा रहे हो ? मैं बहाना बनाते हुए बोला , बस , टल्ले खाने जा रहा हूं . एक साथी बोला , चलो , मालवा मिल चौक तरफ चाय पीने चलते हैं . मैं टालने की कोशिश कर ही रहा था तो वह ज्यूनियर बोला , सर, आज तो गज़ब ढा रहे हैं , आज तो चाय बनती है . इतने में दूसरा साथी बोला, कहीं किसी बिजली से लाइन जोड़ने तो नहीं जा रहे हो . मन ही मन खीजता हुआ मैं उन लोगों के साथ चल पड़ा . वहां पर भी वे किसी लड़की के किस्से बड़े मनोरंजक तरीक़े से बता रहे थे , बेमन से मुस्कुराते हुए मैं वह सब सुनता रहा . उनके निकलते ही मैं भागते हांफते तुम्हारी खिड़की के सामने वाले अपने अड्डे पर पहुंच गया . ना खिड़की खुली थी और ना ही बालकनी में कोई हलचल थी , कमरे की लाईट भी बंद थी . एक घंटे तक टकटकी लगाये देखता रहा फिर निराश होकर कमरे पर लौटा .
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
तू मेरा शौक़ देख, मेरा इंतज़ार देख …
होस्टल में देखा कि हमारे बैच के कुछ लड़के ‘स्टरलिट’ मे लगी अंग्रेज़ी फिल्म ,बेटिकिट ,बेधड़क ,मुफ्त में देखने का प्रोग्राम बना रहे हैं , ऐसे वक़्त मेरी उपस्थिति ज़रूरी होती थी . सो मैं भी चला गया उन लोगों के साथ . फिल्म बहुत अच्छी थी . अंग्रेज़ी फिल्म , थोड़ा किसी को तो थोड़ी किसी दूसरे को समझ में आती थी सो हम वापस लौटने के बाद एक दूसरे से डिसकस कर लगभग स्टोरी समझ लेते थे ताकि दूसरी बार पूरी तरह से एंजॉय कर सकें. वैसे ही बातें करते रूम आकर सोने में लगभग दो बज गये . सुबह उठकर मैं फिर से तुम्हारी खिड़की की तरफ चल पड़ा . हांलाकि यह तय प्रोग्राम नहीं था पर मुझे पूरी उम्मीद थी कि तुम मुझे वहां ज़रूर दिखोगी . बहुत देर खड़ा रहा पर कोई हलचल नहीं दिखाई दी. कॉलेज का वक़्त हो रहा था , मैं वापस निकल पड़ा. मन को तसल्ली देता रहा कि हमने सुबह एक दूसरे को इशाराबाज़ी नहीं करने का ठान लिया था इसलिये तुम नहीं आई होंगी. फिर लगा कि कल शाम तुम इंतज़ार करती रही और मैं समय पर नहीं आया , उसका बदला तो नहीं ले रही थी .
अपना दीदार न देकर , मुझको सताता है वो
बदला लेने , परदे के पीछे से मुस्कुराता है वो
कॉलेज से लौटकर मैं फिर से टेलीफोन बूथ पर चला गया . आज भी फोन एक ही घंटी पर उठा . वह बोली , हैलो ? मैं बोला , नाराज़ हो ? तुम बोली , किससे और क्यूं , और आप कौन बोल रहे हो ? दस सेकंड के लिये मैं डर गया कि फोन किसने उठाया है , हकलाता सा बोला , आप मलिका बोल रही हैं ? तुम बोली , कौन सी मलिका , जिसे आप समय देकर घंटों बालकनी पर खड़ा रखते हैं ? मैं उमराव जान की तरह बोल उठा …
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये
बस, एक बार मेरा कहा मान लीजिये …
( अगले हफ्ते आगे का किस्सा )
इंजी. मधुर चितलांग्या , संपादक ,
दैनिक पूरब टाइम्स