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वो ख़्वाबों के दिन (भाग -2)
( पिछली सदी का 80 का दशक अपनी अनूठी प्रेम कहानियों के लिए मशहूर था . एक तरफा प्रेम, विरह , जुदाई , दिल का दर्द , दर्द भरी शायरी, दोस्तों की सांत्वना , पालकों की सख्ती, समाज की बेरुखी एक आम बात थी . इन सबके होते हुए धड़कते दिल को कोई नहीं रोक पाता था . ❤️ की इन्हीं भावनाओं के ताने बाने के साथ मेरी यह धारावाहिक कहानी प्रस्तुत है )
Part -2
वो ख़्वाबों के दिन
एक प्रेम कहानी अधूरी सी ..
(पिछले रविवार से आगे की दास्तान भाग – 2 )
तीन चार दिन सुबह से तैयार हो जाता पर उस घर की तरफ ना जा पाता था . खुद से कहता वो इतनी खूबसूरत है तो क्या, मुझपर ध्यान देगी ? फिर एक दिन सोचा , उसकी बातें वो जाने पर अपनी बात तो जानता हूं मैं . उसकी एक झलक मेरे जीवन में उत्साह ला देती है .
मुझे रह रह कर प्रेमी के द्वारा अपनी प्रेमिका के लिये की जाने वाले कल्पना वाले ढेरों गाने याद आने लगे . दोस्तों की लव स्टोरीज़ पर हंसने वाला मैं , अचानक ही यह गीत गुनगुनाने लगा
कहीं एक मासूम नाज़ुक सी लड़की बहुत ख़ूबसूरत मगर सांवली सी
मुझे अपने ख्वाबों की बांहों में पा कर, कभी नींद में मुस्कुराती तो होगी
उसी नींद में कसमसा-कसमसा कर, सिरहाने से तकिए गिराती तो होगी
फिर खुद को ही डांटने लगा . वह तो सावंली नहीं नहीं है , एकदम गोरी है . पर है सचमुच बेहद मासूम और नाज़ुक . वह कल्पना नहीं हक़ीक़त है पर मेरी पहुंच से बहुत दूर . एक छोटे से शहर से इंदौर में इंजीनियरिंग पढ़ने आया मैं, अपने दोस्तों के बीच अपने को सबसे बेहतर रखने की कोशिश करता था और कुछ दोस्तों ने मेरे बेहद स्मार्ट होने का बदगुमान भी करा दिया था मुझे . परंतु आज अपने आप को हर तरह से हीन महसूस करने लगा था . इस उधेड़बुन में मैं तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम की तर्ज़ पर तुम्हारे घर के चक्कर लगाने से बचता था, अपने दिल को मनाता था . पर फिर अगले दिन तैयार होकर तेरे दीदार के लिए तेरे घर की खिड़की पर अलसवेरे नज़र गड़ाए खड़े हो जाता था .
दिल को तो हर तरह से दिलासा दिया करूं,
ये आंखें नहीं मानती मैं इसका क्या करूं
कई महीने बीत गए ,फिर जो होना था वह एक दिन सचमुच हो गया . मुझ छुपे रुस्तम पर तुमने सचमुच ध्यान दे ही दिया . पहले मुझे वहम लगा पर तुम्हारी नज़र लगातार दो-तीन दिन सुबह खिड़की खोलते ही साथ मुझपर पड़ती थी . मैं शरीफ बनता इधर उधर देखने की कोशिश करता, खुद को तुम्हारी नज़रों से बचाने की कोशिश करता पर नज़र तुमसे मिल ही जाती थी. मैं ठिठककर जल्दी से जल्दी अपने हॉस्टल की तरफ भाग खड़ा होता . तुम्हारी सुबह उठकर , उस खिड़की से दिखने वाली ,खूबसूरत अल्हड बेफिक्र सी अंगड़ाई बंद हो गयी. पर तुम सुबह खिड़की खोलकर दो मिनट वहां खड़े ज़रूर होती थी. मैं रोज़ अंदाज़ लगाता कि वह क्या सोचती होगी ? कभी लगता कि वह मुझमे रूचि ले रही है, कभी लगता कि वह उत्सुक होती है मेरे रोज़ वहां खड़े होने पर, तो कभी लगता कि वह रोज़ सुबह मुझे भी निर्जीव प्राकृतिक नज़ारे का एक हिस्सा मानकर दीदार करती है.
रोज़ कोशिश तो बहुत करता हूं तेरे करीब आने की
पर आदत बन गई है बगल से तेरे गुज़र जाने की
एक दिन सुबह पहली मंज़िल की उस बंद खिड़की पर नज़र गड़ाए मैं उसके खुलने का इंतज़ार कर रहा था कि एक खिलखिलाती सी खुशबू मुझे मदहोश करती हुई निकली. हां, वह मॉर्निंग वॉक लेकर अपनी भाभी के साथ लौट रही थी. मैं अवाक रह गया . उसने मेरी उपस्थिति को किसी तरह का भाव नहीं दिया. पास से गुजरने पर मैंने देखा कि वह मेरे सपने से भी ज़्यादा खूबसूरत थी . ना जाने मुझे क्यों ऐसा लगा कि वह अपने इस एकतरफा दीवाने आशिक पर दया कर नज़दीक से दर्शन दे रही है . खुशी-खुशी कॉलेज पहुंचा तो वहां तीन दिनों के लिए हमारे सिविल इंजीनियरिंग विभाग का स्टडी टूर बाहर जाना तय हो गया . ग्रुप लीडर होने के कारण ना चाहते हुए भी मुझे जाना ज़रूरी था . टूर में मेरे एक साथी ने मुझपर अंधेरे में तीर चला ही दिया , उस सुबह सवेरे मिलने वाली से ना मिल पाने से बेकरार हो रहा है क्या यार ? मैं अंदर से भौंचक, पर , बाहर से गाली बकते हुए उसे दौड़ाने लगा . लौट कर आते ही फिर सुबह उस खिड़की के सामने यार के दीदार को खड़ा हो गया. आज खिड़की जल्दी खुल गयी . देखता हूं वह सोनपरी मुझे देख रही है और इशारे कर पूछ रही है , कहां थे तुम? मुझे पहले विश्वास नहीं हुआ पर सचमुच दूर से नज़र आती उसकी मुस्कराहट से मैं झूम उठा . आज एक नई दोस्ती की शुरुआत का पक्का अहसास हो गया था .
भोली भाली तेरी सूरत दिल पर तीर चलाती है
कली-कली को छेड़ जब यह मस्त हवा इठलाती है
(अगले रविवार अगली कड़ी )
इंजी.मधुर चितलांग्या, संपादक, दैनिक पूरब टाइम्स