पिछले हफ्तों में मैंने मज़ेदार शायरिया , जोश भर देने वाली व मंच संचालन के वक़्त बोली जा सकने वालीशायरियों के संकलन को आपके सामने प्रस्तुत किया था . इस बार हिन्दी के प्रख्यात लेखक दुष्यंत कुमार के कुछ खास व प्रसिद्ध रचनाएं आपके समक्ष प्रस्तुत हैं , जिनका बहुधा भाषणों में प्रयोग किया जाता है
1.हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
2.सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
- मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ ,वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में,मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है,मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है,मैं अगर रौशनी में आता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में,आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा, मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ - इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है
एक चिनगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है - रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअत से उछालो यारो - हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया
हम पर किसी ख़ुदा की इनायत नहीं रही
मेरे चमन में कोई नशेमन नहीं रहा
या यूँ कहो कि बर्क़ की दहशत नहीं रही - आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख - तुम्हारे पावँ के नीचे कोई ज़मीन नहीं
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं
मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ
मैं इन नज़ारों का अँधा तमाशबीन नहीं - कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
अगली बार फिर किसी अन्य विषयवस्तु व मिजाज़ पर शायरी संकलन आपके सामने प्रस्तुत करूंगा
इंजी. मधुर चितलांग्या , प्रधान संपादक
दैनिक पूरब टाइम्स