प्रत्येक वर्ष हम भगवान महावीर की जन्म-जयन्ती मनाते हैं। महावीर जयन्ती मनाने का अर्थ है महावीर के उपदेशों को जीवन में धारण करने के लिये संकल्पित होना, महावीर बनने की तैयारी करते हुए देश एवं दुनिया में अहिंसा, शांति, करूणा, प्रेम, सह-जीवन को साकार करना। शांतिपपूर्ण, उन्नत एवं संतुलित समाज निर्माण के लिए जरूरी है महावीर के बताये मार्ग पर चलना। सफल एवं सार्थक जीवन के लिये महावीर-सी गुणात्मकता को जन-जन में स्थापित करना। कोरा उपदेश तक महावीर को सीमित न बनाएं, बल्कि महावीर को जीवन का हिस्सा बनाएं, जीवन में ढालें। भगवान महावीर एक युग प्रवर्तक, कालजयी महापुरुष थे। उन्होंने एक क्रांति द्रष्टा के रूप में मानवजाति के हृदय में नवीन चेतना का संचार अपने जीवन-अनुभवों, उपदेशों, शिक्षा और सिद्धांतों के द्वारा किया। भगवान महावीर सामाजिक क्रांति के शिखर पुरुष थे, वे भारतीय संस्कृति का सूरज हैं। महावीर का दर्शन अहिंसा, शांति और समता का ही दर्शन नहीं है बल्कि क्रांति का दर्शन है। व्यक्तिगत एवं समााजिक क्रांति के संदर्भ में उनका जो अवदान है, उसे उजागर करना वर्तमान युग की बड़ी अपेक्षा है। ऐसा करके ही हम दुनिया में युद्ध, हिंसा, आतंक, आर्थिक प्रतिस्पर्धा, तनाव को समाप्त कर एक उन्नत, शांतिपूर्ण, स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकेंगे।
महावीर जन्म से ही अतीन्द्रिय ज्ञानी थे। उन्होंने कहा तुम जो भी करते हो- अच्छा या बुरा, उसके परिणामों के तुम खुद ही जिम्मेदार हो। अपने ज्ञान से उन्होंने प्राणी मात्र में चैतन्य की धारा प्रवाहित की। अक्सर वे कहा करते थे- सुख-दुख के तुम स्वयं सर्जक हो। भाग्य तुम्हारा हस्ताक्षर है। मां को फूलों से सजते देख धीरे से बोल उठे-मां! देखो ये फूल रो रहे हैं। उन्होंने लहलहाती दूब पर चलने की मां की मनुहार को भी ठुकरा दिया। मां! इस दूर्वा की सिसकियां मेरे प्राणों में सिहरन पैदा कर रही हैं। मैं भला कैसे अपने पैरों से रौंदने का साहस करूं? क्षणिक स्पर्श सुख के लिए किसी को परितापित करना क्या उचित है मां? उनकी करुणा एवं सूक्ष्म अहिंसा के सामने मां मौन थी। मन ही मन अपने लाडले की महानता के सामने नत थी। कभी किसी निरपराध अभावग्रस्त व्यक्ति की दासता उनके कोमल दिल को कचोट जाती तो कहीं अहं और दर्प में मदहोश सत्तासीन व्यक्तियों का निर्दयतापूर्ण क्रूर व्यवहार उनके मृदु मानस को आहत कर देता। महावीर घण्टों-घण्टों तक इन समस्याओं का समाधान पाने चिंतन की डुबकियों में खो जाते। तीस वर्ष की युवावस्था में सहज रूप से प्राप्त सत्ता वैभव और परिवार को सर्प कंचुकीवत् छोड़ साधना के दुष्कर मार्ग पर सत्य की उपलब्धि के लिए दृढ़ संकल्प के साथ चल पड़े। साधिक बारह वर्ष तक शरीर को भुला अधिक से अधिक चैतन्य के इर्द-गिर्द आपकी यात्र चलती रही। ध्यान की अतल गहराइयों में डुबकियां लगाते हुए सत्य सूर्य का साक्षात्कार हुआ। वे जिस दिन सर्वज्ञ व सर्वदर्शी बन गये वह पावन दिन था वैशाख शुक्ला दशमी।