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Tuesday, April 29, 2025
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भगवान शंकर के दिव्य श्रृंगार का अद्भुत वर्णन किया है गोस्वामी तुलसीदास ने

गोस्वामी तुलसीदास जी भगवान शंकर के श्रृंगार का वर्णन कर रहे हैं। जिसमें हमने अभी तक अनेकों प्रकार के श्रृंगारों का रसास्वादन किया। गोस्वामी जी कहते हैं-

‘गरल कंठ उर नर सिर माला।
असिव बेष सिवधाम कृपाला।।’

भगवान शंकर के दिव्य श्रृंगार में, अब वाले श्रृंगार ने तो मानों दाँतों तले अँगुलि दबाने को विवश कर दिया था। कारण कि भगवान शंकर ने अपनी छाती पर एक माला पहन रखी है। वह माला न तो कोई स्वर्ण धातु से बनी है, और न ही पुष्प इत्यादि की। जी हाँ! वह माला बनी है ‘नरमुण्डों’ की। खोपड़ियों को एक सूत्र में बाँध कर गले में लटका दिया है। जिसे शिवगण बडे़ रौब से माला की संज्ञा दे रहे हैं। भला ऐसी भी माला की कल्पना किसी ने की होगी? यह तो बुद्धि की सीमा से परे सकी बात हो गई।

हम वैसे कुछ भी सोचें! किंतु यह दिव्य लीला भगवान शंकर ने की है। तो निश्चित ही इसमें कोई न कोई आध्यात्मिक संदेश छुपा ही होगा। नरमुण्डों की माला पहनने के पीछे भी एक गाथा है। संतों के श्रीमुख से हमने अनेकों बार इस गाथा का रसपान किया है। घटना उस समय की है, जब भगवान शंकर माता पार्वती को लेकर अमरनाथ गुपफ़ा में, उन्हें अमर कथा का पान करवा रहे थे। भगवान शंकर आज माता पार्वती को एक दिव्य व अमर ज्ञान से परिचित करवा रहे थे।

भगवान शंकर-हे पार्वती! क्या आप हमें तत्व से जानती हैं?
माता पार्वती-तत्व से—? यह तत्व से जानना क्या होता है प्रभु? आप मेरे स्वामी हैं। पति हैं। मैंने आपको पाने के लिए अखण्ड़ साधना व तपस्या की है। मेरी समृति में एक भी ऐसा कार्य नहीं है, जो मैंने आपकी आज्ञा के विरुद्ध किया हो। क्या इसे ही तत्व से जानना नहीं कहा जा सकता?

भगवान शंकर-हे देवी! आप स्वभाव से ही पवित्र व निश्चल हैं। निःसंदेह आपके द्वारा की गई तपस्या का तीनों लोकों में कोई तौड़ नहीं है। किंतु तब भी आपने हमारे प्रश्न का स्टीक उत्तर नहीं दिया। हम फिर से और सरल भाषा में पूछ रहे हैं, कि हम कौन हैं? आप हमें सृष्टि में किस दृष्टि से देखती हैं?
माता पार्वती-क्षमा करें प्रभु! मेरे शब्द अपूर्ण हैं। किंतु मैं मन, वचन व कर्म से कह रही हुँ, कि आप मेरे लिए साक्षात ईश्वर हैं। मेरी दृष्टि में आप ब्रह्म से नीचे कतई नहीं हैं।

भगवान शंकर-अत्यंत सुंदर देवी! क्या ऐसे कह देने मात्र से, कि ‘हम भगवान हैं’। क्या मात्र इन सुंदर वाक्यों से प्राणी की मुक्ति संभव है? क्योंकि रावण भी हमारा परम भकत था। वह भी हमें ब्रह्म की ही संज्ञा देता था। किंतु तब भी मेरी दृष्टि में अज्ञानी ही था। क्योंकि जो परस्त्री में माँ का भाव नहीं देख पाया, वह हममें भगवान का भाव क्या देखेगा? उसके पास कौन सी ऐसी दृष्टि का अभाव था, कि वह श्रीसीता जी के संदर्भ में अँधा ही रहा? क्या तुम भी रावण की ही भाँति मेरी भक्ति तो नहीं कर रही? रावण की साधना व तपस्या का भी संपूर्ण में कोई सानी नहीं था। उसने दस बार हमें अपना सीस काट कर चढ़ाया था। कहना मिथया नहीं होगा, कि उसका समर्पण आपसे भी अधिक व उत्तम था। किंतु तब भी वह ऋषि पुत्र होकर भी राक्षस कुल का कहलाया। तीनों लोकों में उसी निंदा है। मेेरे प्रति ऐसा अगाध समर्पण होने के पश्चात भी उसका भक्ति पथ अपूर्ण क्यों रहा? क्यों उसे समझ नहीं आया, कि मुझमें और श्रीराम में कोई भेद ही नहीं है। क्यों वह श्रीसीता जी को आदिशक्ति जगदंबा के पावन स्परुप में पहचान नहीं पाया? उसकी दृष्टि श्रीराम जी को पहचानने में अस्मर्थ क्यों सिद्ध हुई?

माता पार्वती-हे प्रभु! आप इतने भेद भरे प्रश्न कर रहे हैं, तो निश्चित ही विचारणीय पहलु होगा। मैं अपनी तुच्छ बुद्धि से भला क्या समझ पाऊँगी? आप ही कृपा करें प्रभु। आपके प्रश्नों के उत्तर देने में, मुझसे कहाँ चूक हो रही है, यह मैं नहीं जानती। मैं आपको तन मन धन से पूर्ण रुपेण समर्पित हुँ। आप मेरा मार्ग प्रश्स्त करें।

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