भारत में स्थित ओडिशा का जगन्नाथपुरी धाम न केवल चार धामों में से एक है, बल्कि इसकी परंपराएं, मूर्तियों से जुड़ी पौराणिक मान्यताएं और विशाल रसोई इसे और भी विशिष्ट बनाती हैं। यह मंदिर धार्मिक, सांस्कृतिक और रहस्यमय तत्वों का अद्भुत संगम है। यहां के प्रत्येक नियम, परंपरा और व्यवस्था के पीछे कोई न कोई गहरी भावना और आस्था जुड़ी हुई है। विशेष रूप से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की अधूरी मूर्तियों के पीछे की कथा, मंदिर की रसोई में प्रसाद पकने की अनोखी विधि और कभी न बचने व न कम पड़ने वाला प्रसाद यह सब श्रद्धालुओं के लिए आश्चर्य और भक्ति से परिपूर्ण अनुभव प्रदान करते हैं।
जगन्नाथ मंदिर की रसोई: जगन्नाथ मंदिर की पवित्र रसोई को दुनिया की सबसे बड़ी मंदिर रसोई कहा जाता है। मंदिर में प्रवेश से पहले दाईं ओर आनंद बाजार और बाईं ओर यह विशाल रसोई स्थित है। यहाँ प्रसाद मिट्टी के सात बर्तनों में लकड़ी की आंच पर पकाया जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि ऊपर रखा बर्तन सबसे पहले पकता है, फिर क्रमशः नीचे के। यह प्रसाद लगभग 25,000 से अधिक श्रद्धालु प्रतिदिन ग्रहण करते हैं। विशेष बात यह है कि यहाँ न तो प्रसाद बचता है और न ही कभी कम पड़ता है।
शास्त्रों के अनुसार विश्वकर्मा मूर्तियां बना रहे थे और उन्होंने राजा इंद्रदयुम्न से कहा कि दरवाजा बंद रहेगा और निर्माण पूरा होने तक कोई भीतर नहीं आएगा। पर एक दिन राजा को भीतर से कोई आवाज नहीं आई, उन्होंने दरवाजा खोल दिया। विश्वकर्मा तुरंत वहां से चले गए और मूर्तियां अधूरी रह गईं। तभी से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की यही अधूरी मूर्तियां मंदिर में स्थापित हैं।और मूर्तियां अधूरी रह गईं। तभी से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की यही अधूरी मूर्तियां मंदिर में स्थापित हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के दिल से जुड़ा है लट्ठा: मान्यता है कि जब श्रीकृष्ण की लीला पूर्ण हुई तो उनका पार्थिव शरीर जलाया गया, पर उनका दिल नहीं जला। उसे जल में प्रवाहित किया गया, जिससे वह लट्ठा बन गया। यही लट्ठा राजा इंद्रदयुम्न को मिला और उन्होंने इसे भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में स्थापित किया। यह दिव्य लट्ठा आज भी मूर्ति के अंदर सुरक्षित है।
हर 12 साल में बदली जाती है मूर्ति, नहीं बदलता लट्ठा: हर 12 वर्षों में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां बदली जाती हैं, परन्तु उनके भीतर स्थित यह दिव्य लट्ठा अपरिवर्तित रहता है। यह प्रक्रिया ‘नवकलेवर’ कहलाती है। लट्ठा स्थानांतरित करते समय पुजारियों की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है और उनके हाथ भी कपड़े से ढंके रहते हैं। नहीं देख सकता
कोई वह दिव्य लट्ठा: मान्यता है कि यदि कोई उस दिव्य लट्ठे को देख ले तो उसकी मृत्यु निश्चित है। इसलिए अब तक किसी ने उसे नहीं देखा। पुजारी सिर्फ उसका स्पर्श किए बिना अनुभव करते हैं और कहते हैं कि यह बहुत कोमल प्रतीत होता है।