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विद्युत व टाइगर की राह पर दौड़ते दिखे आयुष शर्मा, बस मिमियाकर रह गया बड़े परदे का रुसलान Pankaj Shuklaपंकज शुक्ल

सिनेमा के चर्चित सितारे सलमान खान की बहन अर्पिता से साल 2014 में शादी करने के बाद आयुष शर्मा ने साल 2018 में फिल्म ‘लवयात्री’ से हिंदी सिनेमा में अपने फिल्मी सफर की शुरुआत की। आयुष शर्मा की तीसरी फिल्म ‘रुसलान’ देखकर समझा जा सकता है कि सब कुछ पहुंच में होने के बाद भी हिंदी सिनेमा का हीरो बन पाना कितना मुश्किल है। आयुष से भी बेहतर स्थिति में रहे कुमार गौरव, अरमान कोहली, हरमन बावेजा जैसे युवा आखिर क्यों हिंदी सिने आकाश के सितारे नहीं बन पाए, ये समझना हो तो आयुष की नई फिल्म ‘रुसलान’ देखी जा सकती है। लीक से इतर न सोच पाने और जोखिम लेने की बजाय बंधे बधाए फॉर्मूले पर फिल्में बनाने का जमाना कब का जा चुका है। नई सदी का सिनेमा कैसा होना चाहिए, ये समझना हो तो मलयालम सिनेमा की तरफ इन दिनों नजर दौड़ानी चाहिए, लेकिन आयुष की दौड़ यूनुस सजावल तक है।

 

पुराने फॉर्मूले पर बनी नई फिल्म
यूनुस सजावल हिंदी सिनेमा के गोविंदा काल का बड़ा नाम रहे हैं। रोहित शेट्टी की गोलमाल और सिंघम सीरीज से भी वह जुड़े रहे हैं। लेकिन, उनकी फिल्मों पर गौर करेंगे तो समझ आता है कि यूनुस से उनका बेस्ट निकालने के लिए एक दमदार निर्देशक चाहिए। वह दी गई परिस्थिति में कई विकल्प देने वाले लेखक हैं, इनमें से सबसे अच्छा सीन क्या होगा, ये चुनने वाला निर्देशक दर्शकों की नब्ज पहचानने वाला होना चाहिए और उसे आने वाले कल की भी खबर रखनी आनी चाहिए। फिल्म ‘रुसलान’ के निर्देशक करण एल भूटानी (या बूटानी) इसी में बुरी तरह चूके हैं। विद्युत जामवाल और टाइगर श्रॉफ जो कुछ लगातार करके अपने करियर को खुद धकियाकर हाशिये पर पहुंचा चुके हैं, वही काम वह यहां आयुष शर्मा से करा रहे हैं। फोटोशॉप से चमकाए गए चेहरे, शर्ट हवा में उड़ाकर दिखाई गई पसलियां, थोक के भाव बनाकर रखे गए गानों में से लिए गए कुछ गाने और तड़का देशभक्ति का, बस यही कहानी है फिल्म ‘रुसलान’ की। फिल्मों के नामों के मायने अब शायद ही कोई दर्शक तलाशने की कोशिश करता हो लेकिन किसी के मन में शंका न रह जाए इसलिए फिल्म के संवाद लेखकों ने बातों बातों में बता दिया है कि इसका मतलब शेर होता है।

अंडरकवर किरदार में अंडरआर्म एक्टिंग
खैर, यहां जो कहानी है उसमें फिल्म के हीरो का नाम रुसलान हो, पठान हो या जवान हो, कोई फर्क नहीं पड़ता। वतनपरस्ती से अपने दामन को पाक करने की कोशिशों के बीच जो कुछ यहां होता है, वह बहुत ही घिसा पिटा है। रॉ एजेंटों की कहानी वेब सीरीज से लेकर बीते दो तीन साल की तमाम फिल्में देख सुनकर दर्शक पक चुके हैं। और, यहां फिर एक अंडरकवर है। कहने को वह संगीत सितारा है। जो आता नहीं है, एंट्री मारता है। लेकिन, आखिरकार कितनी बार कोई कलाकार एंट्री मारेगा। एंट्री देखनी हो तो रजनीकांत की आने वाली फिल्म ‘कुली’ का अनाउसमेंट वीडियो देखना चाहिए, एंट्री इसको कहते हैं। बड़े परदे पर एंट्री मारने के लिए वैसा ही डीलडौल चाहिए। और, अगर ऐसा कुछ न हो तो जबर्दस्ती खुद को ब्रूस ली बनाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।

विशाल मिश्रा का संगीत भी कमजोर कड़ी
आयुष शर्मा अपनी इस तीसरी फिल्म में भी वहीं खड़े नजर आते हैं, जहां वह छह साल पहले फिल्म ‘लवयात्री’ में थे। वह भ्रमित हैं। वह समझ ही नहीं पा रहे कि उन्हें हिंदी सिनेमा का बॉय नेक्सट डोर बनना है या फिर शाहरुख और सलमान जैसा इन दिनों का एक्शन हीरो। फिल्म की जब पहली पहली बार चर्चा हुई थी तो उनके किरदार के साथ एक गिटार भी था। फिल्म में भी वह गिटार टुनटुनाते दिखते हैं। लेकिन, फिल्म ‘बड़े मियां छोटे मियां’ के बाद विशाल मिश्रा ने बतौर संगीतकार यहां भी निराश ही किया है। या हो सकता है कि अपने गोदाम के जो दर्जनों पहले से बने रखे गाने विशाल ने आयुष और करण को सुनाए हों, उनमे से सही गाने चुनने से ये दोनों ही चूक गए हों। कहानी, पटकथा और संवादों में तमाम नई पुरानी फिल्मों की याद दिलाती फिल्म ‘रुसलान’ का संगीत भी बहुत सतही है।

फिल्म की सीमित अवधि सबसे बड़ा संतोष

अभिनेता के तौर पर आयुष शर्मा ओवरएक्टिंग का शिकार होते नजर आते हैं। उनके साथ सिर्फ जगपति बाबू ही एक ऐसे कलाकार हैं जो फिल्म को संभाल सकते हैं लेकिन दिक्कत ये है कि ये ओवरएक्टिंग का स्कूल खुद उनके जैसे ही कलाकारों ने साउथ में शुरू किया है। सुनील शेट्टी की झलकी दिखते ही लोग उनके शुरुआती दिनों के अभिनय से आयुष की तुलना अगर करने लगते हैं, तो उसमें भी दोष ‘रुसलान’ की मेकिंग का ही है। सुरीली मिश्रा बतौर हीरोइन बिल्कुल प्रभावित नहीं करती है। उनसे बेहतर काम फिल्म में विद्या मालवडे का है। फिल्म का पूरा एक्टिंग डिपार्टमेंट बहुत कमजोर है। तकनीकी रूप से फिल्म को समृद्ध करने के लिए फिल्म के निर्माता के के राधामोहन ने उतनी ही मेहनत की है जितनी फिल्म के हीरो की मार्केट वैल्यू है। जी श्रीनिवास रेड्डी का कैमरा हॉलीवुड की फिल्मों के सीन कॉपी करता रहता है। केतन सोढा ने फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक इतना लाउड रखा है कि दो घंटे की फिल्म भी शोर मचाती लगती है। भला हो संकलक मयूरेश सावंत का कि उन्होंने फिल्म की अवधि सीमित रखी।

 

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